Tuesday 13 September 2011

इक ख़्वाब सा देखा मैंने

              
                  इक ख़्वाब सा देखा मैंने

नम आँखों से टपकती थी बूंदें - ओस सी :
दूब की नोक पे मोती सी पिरो आई है  !!
ज़ब्त तल्ख़ियां करती हुई ; फ़िक़ी सी हँसी ;
डाल पर फुदकते हुए बुलबुल पे भरमाई है !!
कुछ ख़ामोश से पड़ते हैं , क़दमों के निशां
तन्हा, दरख़्तों के कहीं बीच धंसा जाता हूँ
न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!

रात की ख़ामोश सी चादर में सितारों सी सलवटें
दुबक कर ; नीले आसमान पे कहीं गम सा हूँ मै
 उजले चाँद को छेड़ते ; फाहों से, टुकड़े बादल
 हवा मद्धम सी चली है मगर , गुमसुम सा हूँ मै !
 नींद सदियों की हसरत सी है ठिठकी मुझ पर :
  आँख भारी है, दिल बेचैन , जगा जाता हूँ !
   न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!
                                             #   राजेश पाण्डेय

Friday 19 August 2011

सावन : एक प्रेम गीत

सावन : एक प्रेम गीत 
बहकी सी हवा , इक शोख घटा ;
                                  घड़ - घड़ गरजे दीवानी रे !
नील गगन को आज सताते ,
                                  बादल , बिजली , पानी रे !!     
बूँदें , धड़कन - धड़कन गिरतीं  ,
                                      छाती : घर का आँगन !!
सावन ने ये क्या कर डाला ?
                                      अपनी भरी जवानी रे !!
हरियाली का यौवन पाकर ,
                                        धरती क्यूँ सकुचाये ?
केले के चिकने पत्तों पर ,
                                         बूँदें : पानी पानी रे !!
सूरज को भी लील चुकी है ,
                                        काली , गहरी , घटाएं ;
भरी दुपहरी , स्वप्न - साँझ का ;
                                      निश्छल प्रेम कहानी रे !!
अलसाए से पेड़ खड़े हैं ,
                                    छेड़ - छाड़ सी लगी झड़ी !
धरती पर खनखन करती ,
                                     ये  कैसी चंचल वाणी रे !!
कुछ गीत लिखूँ , कुछ राग रचूँ ,
                                  कुछ बात करूँ मैं ख़ुद से !!
चाय की चुस्की दिल तक जाती ,
                                     मन को सूझे शैतानी रे !! 
                                           # राजेश पाण्डेय 
                                   

Friday 12 August 2011

खुद की तलाश

खुद की तलाश और प्रकृति!!
               रात ने घटाओं की गड़गड़ाहट  के साथ कुछ नर्म बौछारों का तान छेड़ा और मै पलकों में , जागती आँखों के प्रश्नचिन्हों की नमी सहेजकर , सलवटों पर बिछ चुका था ! बाहर सरसराती हवाओं ने शायद पत्तियों को थपकियाँ दीं थीं , और मै नींद की बाँहों में कब समा गया - भान नहीं रहा !! पर न जाने कैसे ,गरजती बिजलियों से , गहरे हुए अवसाद का एक दुःस्वप्न् कौंध गया :-
               कौन है ये ? शंकाओं , उलझनों और कौतुहल की सलीब पर रिसते ज़ख़्म की नुमाइश को टंगा ?तन्हा, सिसकता वजूद ! अक़्स पहचाना सा !! डूबती नब्ज़ और विचलित जिजीविषा में कुछ अपनेपन का भान !! साँसों की थकी , बेसुर लय से निकलती वो मर्मभेदी , मद्धम कराह...
                                                                                                                                            अरे ठहर !! ये तो मै हूँ -- दमित आकांक्षाओं की शापित छवि सा !! जीवन के सम्मोहन से पूर्ण मुक्ति को छटपटाता , और इस आत्मध्वंसात्मक  प्रयास में , गहरे और गहरे धंसता हुआ ! अपनी नियति के एकांत में विलीन !!
                                पर फिर बाहर शायद बारिश थमी थी और आसमान साफ़ धुल कर खिल रहा था ! नीले शांत अनंत में थिरकते , दमकते चाँद ने अपना शाश्वत प्रभामंडल बिखेरा - और मैं हठात् , अपलक उसे निहारता -स्मृति पटल में जीवन का एक अलग ही प्रतिबिम्ब गढ़ने लगा !! सरसराते पत्तों से आलिंगनबद्ध  बहती मद्धम बुदबुदाती हवा , उल्लास का एक दूरस्थ अनुगूँज-सा आभास देने लगी ! 
           समझ में आया कि जीवन , शायद ऐसे ही चन्द लम्हों की सुकून की तलाश में , अपनी सारी साँसे गिरवी रखने की शर्त स्वीकारता है ! जीवन में रस के बाँझपन से उकता कर यदि कोई खुद्दारी के साथ तन्हा रहने की अभिलाषा पालता हो - तो अभिप्रेरणा स्रोत प्रकृति की ये छटाएं ही हो सकती हैं :- एक बेबूझ निमंत्रण , बेपरवाह खिलखिलाहट का मीठा इशारा ।
                                #  राजेश पाण्डेय

Sunday 19 June 2011

कुछ अनकही सी !!


कुछ अनकही सी !!

तुम मेरी सारी शंकाओं का समाधान हो
जीवन के प्रति
विचलित होती आस्था
और जज़्बात की पाकीज़गी पर
डगमगाती निष्ठा का
तुमसे सुंदर विराम हो नहीं सकता !!
तुम्हारे सानिध्य के
विचार मात्र से
जीवन की चढ़ती दुपहरी का
एक नया स्वप्न बुनने बैठा हूँ !!
बेबाक धड़कनों
और सकुचाते होठों
से अलहदा
तुम सांझ का विश्राम हो !!
तेरे साथ जीवन के
आखरी सफ़र का एहसास
यूँ है मानो
जिस्म ने
आत्मा से पनाह माँगा हो !!
और बड़ी मासूमियत से ;
अवचेतन में
अमर हो जाना चाहता हो !!
तुम साथ हो
तो यह अमरत्व भी संभव है !!
 तुम साथ हो तो अब सब संभव है !!
                                   # राजेश पाण्डेय

Friday 17 June 2011

एक परवान चढ़ते सपने का उड़न ताबूत


एक परवान चढ़ते सपने का उड़न ताबूत  !!

जब विचारों की उजास, हमें साफ़गोई अभिव्यक्ति की पीड़ा पीने का साहस दे दे , तब संभव है कि गुज़श्ता उम्र की बेजा भूलें सिर्फ भावनात्मक प्रतिध्वनि का स्वांग ना रचें ! नंगे हुए सच से आनंद कितना मिलता है यह तो अनुभव नहीं , पर सहमा हुआ साहस भी सुकून बहुत पाता है ! नफा- नुकसान के बही खाते से परे आज एक दबा आक्रोश , अपने भीतर ही ज्वालामुखी के विस्फोट सा हो जाना चाहता है !

मोह बुरा नहीं ; स्वार्थ गुनाह नहीं ; पर पाकीज़गी का भ्रम , ईमान का झांसा , परम सत्य के सामने कब बेआबरू हो जाएँ और प्रेम को भूख  और त्याग को महज़ अवसर भुनाने की कवायद साबित कर दें कहना कठिन है ! नए पंखों से सपनों की उड़ान भरी थी , पर जीवन तो एक उड़ते ताबूत का भ्रम देता है ! क्या पंखों को भरोसा कम दंभ ज्यादा था ? या उड़ान में सहजता कम बेक़रारी अधिक थी ?

कौन जाने यह उड़ना था भी या नहीं ? सापेक्षिक रूप से तो कहीं कोई ऊँचाई होती भी नहीं !
                                              #  राजेश पाण्डेय

Wednesday 1 June 2011

ख़ुद का पंचनामा

ख़ुद का पंचनामा  
आज बरसों बाद मैंने अपनी diary entries पढ़ीं ! निजी अनुभवों से रंगे कुछ पन्नों ने आँखें नम कीं ; कुछ गुदगुदा गए , पर ऐसी ढेरों entries हैं जो चाबुक की तरह आत्मा पर बरस रहीं हैं ! हम ख़ुद को कितना कम समझते हैं ! जैसी परिस्थितियाँ मिलीं , उसी सुविधा के अनुरूप अपना प्रपंच ( so called moral codes) रच लेते हैं ! परिस्थितियाँ बदलीं , तो हम अपने बदले हुए मुखौटे के लिए नया justification  ढूँढ लेते हैं !
      सच है , इन्सान सबसे ज्यादा ख़ुद को चाहता है ; पर इसे स्वीकार करने में बड़ी हिचक है ! क्यूँकि हमने स्वयं को कुछ दूसरे ही पहनावे में दुनिया के रंग मंच में पेश किया है !और इस Cat -walk में अपनी स्वाभाविक चाल या तो भूल गए हैं ; या फिर अपने बेडरूम अथवा बाथरूम के floor तक सीमित कर दिया है !
जीवन के भूगोल के हर क्षेत्र में हमने अपनी नैतिक सभ्यता विकसित नहीं की है ! एक बड़ा हिस्सा अब भी मन के बीहड़  के रूप में विद्रोही है ; जहाँ मन की भी नहीं चलती ! बीहड़   का अपना अलग वजूद है , जिसे समझना और सँवारना बाकी है ! आज बरसों बाद , आईने के सामने मैं
अपने ही प्रश्नों पर निरुत्तर हूँ ! कुछ भी परम सत्य नहीं है और यदि है भी तो वह "सापेक्षिक" है :-  Theory of relativity applies to Truth also .
             पर जैसा कि हम जानते हैं , की जिन सभ्यताओं ने अपने इतिहास से सबक़ नहीं लिया वे नष्ट हो गयीं ; ठीक उसी तरह अपने जीवन के अनुभवों से ना सीखने वाले लोग , अपना " मूल व्यक्तित्व " कहीं खो देते हैं !  राहत इतनी ही है , कि  " आत्मा" अभी मरी नहीं है - क्यूँकि कचोट रही है !ख़ुद पर भरोसा सिर्फ इतना है कि सीखने
और परिपक्व होने की ईमानदार कोशिश जारी है !
 May God .........oooops....the mistake again. Let me help myself !!
                                               #  राजेश पाण्डेय

Sunday 29 May 2011

दर्द का दोगलापन

दर्द का दोगलापन : एक व्यंग्य 

हाँ मैंने खरी खोटी सुनाई थी :-
पर पूरा यक़ीन था ;
कि तुम समझोगी :-
" मेरी हताशा !! "

पर अब तुम्हे सुबकते देख
मैं ख़ुद को छला ;
महसूस कर रहा हूँ !
दोस्तों :
" क्या तुम्हारा भी भरोसा :
कभी इस तरह टूटा है ?"

ना जाने ये लड़कियां
कब mature होंगीं ?


हाँ तुमने " तथ्य " छिपाए थे :
क्यूँकि तुम्हें पूरा यक़ीं था
" कि मैं नहीं समझूँगा !!"
पर अब मेरी शिकायत :
तुम्हें " आरोप " का सदमा देती है !

ना जाने ये लड़के
कब परिपक्व होंगे ?

                           # राजेश पाण्डेय

Wednesday 25 May 2011

Let's Salute to Rajesh Pawar !!

एक दोस्त की
शहादत!!

                 23 मई 2011 की शाम, लगभग 1645 बजे , गरियाबंद से पि.डब्ल्यू. डी. के Executive Engineer मेरे पास Homeguard barrack की डिजाईन पर चर्चा करने आए थे ! राजेश पवार ,Addl. S. P. गरियाबंद ने कुछ दिन पहले ही मुझसे कहा था " भाई , इंजीनियर साहब आही , प्राकलन के कापी देके , समझा देबे ! " मै , लगभग उसे धमका गया था ; " यार साल भर से मैं रायपुर में हूँ , अब इसी बहाने तू भी मिलने आजा ! "कुछ हल्की - फुल्की हँसी मज़ाक़ भी हुई !
         इंजीनियर साहब के साथ प्राकलन और नक़्शे पर चर्चा करते हुए मैंने सोचा चलो राजेश को बता दूँ की काम हो गया है ! लगभग 1700 बज रहे होंगे , मैंने ४-५ बार प्रयास किया , हर बार "नेटवर्क coverage से बाहर आ रहा था ! " तब तक एनकाउन्टर हो चुका रहा होगा ; " आत्मा ही नेटवर्क से बाहर जा चुकी होगी !" क्या पता पहली मिस कॉल के साथ ही पहली गोली भी छाती भेद गयी हो ! सिहरन सी पैदा होती है , अब जब सोचता हूँ !
      उसने वादा किया था , एक सप्ताह के अन्दर वो आएगा , और हम पुलिस अकादमी की पुरानी बातें करेंगे ! पर विडंबना देखो , 24 मई 2011 को दोपहर ठीक मेरे बंगले के सामने हॉस्पिटल में , मै उसकी पोस्ट मोर्टेम होते देख रहा था ! मुझे और लक्ष्मी को कई मिनट लगे " मृत शरीर " को शिनाख़्त करने में ! ऐ कैसा वादा निभाया दोस्त , मैंने तुझे सिर्फ " स-शरीर " नहीं बुलाया था , तेरी अल्हड और " कुछ बेमानी सी " बातों की कशक रह ही गयी ! राजकीय सम्मान के साथ ताबूत पर माला चढ़ा कर सलूट करते एक बारगी ही दिमाग में बात कौंध गयी , कि क्या एनकाउन्टर के वक्त अकादमी के हम २३ साथियों में से किसी की याद आई होगी ? उस्ताद का सबक तो जरूर दोहरा गया होगा :- " Rifle पर मजबूत पकड़ और दुरस्त शिस्त!"
         पर ज़िन्दगी की बदनीयती भी देखो , हमारे Batch के सबसे शेर-दिल साथी को " कायरों " ने गाड़ी से उतरने का भी मौका नहीं दिया ! LMG की Close - Range Fire :-और शेर की छाती थी सबसे सामने :- शायद उस वक़्त भी वह हमेशा की तरह ठहाके लगा रहा होगा , बेबाक , बेफ़िक्र !!
   आओ हम सब मिलकर उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करें !!
                                              # राजेश पाण्डेय

Monday 2 May 2011

पाना खोना



पाना -खोना  
पाना और खोना
बस समझ की बातें है
पास रख कर भी पा लो
ज़रूरी नहीं
दूर करके भी वो छीन लें
आसान नहीं
ये तो
आस्थाओं की कसौटियां हैं
जिसकी जितनी गहरी आस्था
वह
उतना ही निर्लिप्त
इन दोनों से
वह
उतना ही परिपूर्ण
इन दोनों में
                  # राजेश पाण्डेय

जीवन


जीवन 
जो मिला - भरपूर जिया
जो खोया - भरपूर रोया
दोनों ही अनुभव भोगा
शिद्दत से !!
भावनाओं की निर्झरणी
डूबकर तैरा
 इस किनारे से - उस किनारे तक
जीवन :
कितना संपूर्ण था  ।
                       # राजेश पाण्डेय

Saturday 30 April 2011

कुछ समझाना चाहता हूँ ।

 कुछ समझाना चाहता हूँ
मेरे इर्द गिर्द गहराती शंकाओं की धूँध ,
ख़ुद मेरी रची नहीं है ;
( और अब ये लोग हैं कि परिस्थितियाँ मायने नहीं रखतीं  )
पर यह भी सच है ,
                        कि इस एक वजह से तुम ,
मुझे कभी पूरा साफ़ देख नहीं पाओगी !!
और बस एक कसक सी रह जाती है ;
                                    तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
अगर सापेक्ष भाव से देखें ,
                  तो कहीं भी कोई परम सत्य नहीं होता !!
पर यह भी ठीक है ,
                     कि तुम्हे अपनी चौखट से ही देखना है
और बस यह एक पक्ष ही तो है ,
                        कि कसक निरंतर बनी रहती है
और अब मै बेचैन हूँ ;
                     तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
पराये पत्थर पसलियाँ फोड़ते हैं
                     और मै सर बचा के चलता हूँ !
पर जब - जब भी
मै तेरे संग कि ज़द मै आता हूँ ;
दर्द सारा , सीधे दिल मे उतर जाता है !
जरा ठहर ,
           अरे आहिस्ता ;
ज़ख़्म गहरें हैं  :
          कुछ समझाना चाहता हूँ !!
                                      # राजेश पाण्डेय

अपना अपना पिंजड़ा

अपना अपना पिंजड़ा 
अपने लिए कुछ चाहना
अपने आप को छलना है
क्यूँकि
ये चाहत तो टूटेगी
ज़रूर टूटेगी
और तुम्हारे भीतर ही टूटेगी ।
यह जीवन का
एक सहज सिद्धांत है
अपना- मेरा- मैं
कभी भी नहीं चल सका ।
हम अनजाने ही
सुप्त पड़े आँसुओं के समंदर को
मथ जाते हैं
और तड़पते हैं
दोष
दूसरों पर मढ़ते हैं ।
मै जानता था
तुम भी समझती थीं
मुश्किलें
फ़ासिले
शर्तें
मजबूरियाँ
पर हम दोनों
लाँघ जाना चाहते थे - यह सब
पर अपने अपने पिंजड़े में
क़ैद रहकर
यह कैसे संभव था ?
हम अपने ही
पिंजड़ों की सलाखों  से
टकराते रहे
और अपने- अपने
ज़ख़्म लेकर
फिर लगे चुगने
अपना अपना दाना
अपने - अपने पिंजड़े में !
# राजेश पाण्डेय