Wednesday 1 June 2011

ख़ुद का पंचनामा

ख़ुद का पंचनामा  
आज बरसों बाद मैंने अपनी diary entries पढ़ीं ! निजी अनुभवों से रंगे कुछ पन्नों ने आँखें नम कीं ; कुछ गुदगुदा गए , पर ऐसी ढेरों entries हैं जो चाबुक की तरह आत्मा पर बरस रहीं हैं ! हम ख़ुद को कितना कम समझते हैं ! जैसी परिस्थितियाँ मिलीं , उसी सुविधा के अनुरूप अपना प्रपंच ( so called moral codes) रच लेते हैं ! परिस्थितियाँ बदलीं , तो हम अपने बदले हुए मुखौटे के लिए नया justification  ढूँढ लेते हैं !
      सच है , इन्सान सबसे ज्यादा ख़ुद को चाहता है ; पर इसे स्वीकार करने में बड़ी हिचक है ! क्यूँकि हमने स्वयं को कुछ दूसरे ही पहनावे में दुनिया के रंग मंच में पेश किया है !और इस Cat -walk में अपनी स्वाभाविक चाल या तो भूल गए हैं ; या फिर अपने बेडरूम अथवा बाथरूम के floor तक सीमित कर दिया है !
जीवन के भूगोल के हर क्षेत्र में हमने अपनी नैतिक सभ्यता विकसित नहीं की है ! एक बड़ा हिस्सा अब भी मन के बीहड़  के रूप में विद्रोही है ; जहाँ मन की भी नहीं चलती ! बीहड़   का अपना अलग वजूद है , जिसे समझना और सँवारना बाकी है ! आज बरसों बाद , आईने के सामने मैं
अपने ही प्रश्नों पर निरुत्तर हूँ ! कुछ भी परम सत्य नहीं है और यदि है भी तो वह "सापेक्षिक" है :-  Theory of relativity applies to Truth also .
             पर जैसा कि हम जानते हैं , की जिन सभ्यताओं ने अपने इतिहास से सबक़ नहीं लिया वे नष्ट हो गयीं ; ठीक उसी तरह अपने जीवन के अनुभवों से ना सीखने वाले लोग , अपना " मूल व्यक्तित्व " कहीं खो देते हैं !  राहत इतनी ही है , कि  " आत्मा" अभी मरी नहीं है - क्यूँकि कचोट रही है !ख़ुद पर भरोसा सिर्फ इतना है कि सीखने
और परिपक्व होने की ईमानदार कोशिश जारी है !
 May God .........oooops....the mistake again. Let me help myself !!
                                               #  राजेश पाण्डेय

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