Sunday 23 August 2015

Compatibility Issue

ठोकर तुम्हारी थी :
                     ( इरादतन ना सही पर सम्भावनाओं का ज्ञान तो तुम्हे भी था । )
और ज़ख़्म मेरे ।।
                    ( और ये स्वाभाविक भी है । )
पर मेरी कराह भी तुम्हें ;
मुख़ालफ़त का भ्रम देती है ।
अब त्यौरियाँ तुम्हारी हैं :
और सदमा मेरा ।।
                    गोया कि मैं
                    दर्द के अलग अलग निशाने पर हूँ ।
                    और तुम्हे आजमाने हैं :
                    शिकायतों के अनगिनत तीर ।।
      #राजेश पाण्डेय
                  

Saturday 22 August 2015

मुनासिब जो होता ।

वो सपने ,ख़यालात ,वो बेबाक हँसना ;
वो तारों को तकना , कभी रात में ;
जो तुझे लेके उठती थी बेबस तमन्ना ;
इक हँसी बन न जाये कू-ए-यार में ।
बस इतना ही चाहा था इस प्यार में ।।

"हार और जीत ": ये कोई बाज़ी नहीं थी,
ना "पाने और खोने" का बाज़ार था ;
गर कभी याद आऊँ, जो तन्हा रहो ;
इक मुस्कान बिखरे जो रुख़्सार में ।
बस इतना ही चाहा था इस प्यार में ।।
                         # राजेश पाण्डेय

Sunday 16 August 2015

प्राकृत मैं

          मैं हमेशा से अभ्यस्त रहा हूँ , नीले अनंत की सनातन ख़ामोशी में कहीं दूर खोये रहने का । मुझे आदत सी रही है , उतावले बादलों के संग तैरकर , भींगकर कागज़ों में कविता बनकर उतर आने की । मैं हमेशा से सहज रहा हूँ ; पहाड़ों , नदियों , घाटियों , में अपनी आंतरिक ध्वनि की गूँज से बिखर जाने में । और यह सब इतना स्वाभाविक रहा है कि मुझे एहसास भी नहीं रहता कि प्रकृति  की सारी छटाएँ ; मुस्कान बनकर मेरे  अंतर्मन में तैरती रहती हैं ; आँखों और होंठों से छलकती रहती हैं । ठीक उसी तरह , जिस तरह मैं अलसभोर की अपनी पहली चाय लेकर घर के बाहर झूले पर बैठता हूँ , और आसपास के फूल ,पत्ते , टहनियाँ सब अपने भीतर सहेजी हुई , रात भर की नमी को सतह पर लाकर दमकने लगते हैं , मानों जतला रहे हों , कि उन्हें एहसास है कि मैं आसपास ही हूँ , और आनंदित हूँ । कितना शाश्वत रिश्ता है मेरा , अपने आसपास  चारों ओर फैले और निखरे प्रकृति के असीमित रूपों से । मैं इनमें बिखर सा गया हूँ , ये मुझमें निखर सी गई हैं । प्रेम और आनंद अपनी उन्मुक्तता में ,प्रकृति के माध्यम से मेरे भीतर हमेशा सम्मोहित से रहते हैं ।
                                           #राजेश पाण्डेय