tag:blogger.com,1999:blog-29129789527947231212024-02-18T21:34:59.914-08:00अपने पिंजड़े से !!Introspecting the self from the third eye !!!RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.comBlogger29125tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-45731798274463460472019-04-30T10:46:00.002-07:002019-04-30T10:46:28.613-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*ख़्वाबों से भीगे ख़त*<br />
<br />
Dear ज़िंदगी<br />
शायद तुझे ख़बर नहीं मैंने तेरी करवटों के नीचे से सिलवटें चुराई हैं और सहेज कर रखता रहा हूँ । तेरे साथ न होने पर इन्हें यादों की सेज बना कर कई रतजगे किए हैं । याद है तू कैसे मेरे बाएँ कंधे पर सर टिकाकर , दिल की धड़कनों के ठीक ऊपर अपनी नाज़ुक हथेली रख , किसी 6 माह के बच्चे की मासूमियत लिए सुकूँ की नींद सोती थी ? मैं तेरे बालों में हौले हौले उंगलियाँ फेरता तुझे घण्टों निहारा करता । बीच बीच में तेरे नाक के आगे अपनी उंगलियाँ रखकर तेरी साँसों में घुले सपनों की भीनी महक महसूस करता । तेरी नींदों ने मेरी नींदें उड़ाई है जॉना , पर रातों को उतना ही हसीन भी बना दिया ।<br />
कई बार जब तू मुझसे कुछ दिनों के लिए दूर चली जाती तो पता है क्या होता था ? दिल ने धमनियों में रक्त के बदले बेचैनियाँ दौड़ाई थीं । साँसों ने लय तोड़कर टूटने , उखड़ने का भय पैदा किया था । दिल और धड़कने सिर्फ़ शरीर मे साथ होते हैं , रूमानी रिश्तों में ये सारे समीकरण बदल जाते हैं । भौतिक दूरियाँ संवेदनाओं की धार और बढ़ा देती है , दिल और धड़कनों के बीच तब मीलों के फासले होते हैं । याद है कैसे आधी रात तुझे फोन करके बिलख पड़ता था : " यार साँसे रुक सी जा रही हैं , दिल डूब रहा है , तू क्यूँ नहीं है मेरे पास ? " और हम दोनों की आँखें भीग जाती थीं ।<br />
तूने जो आसमान का टूकड़ा लम्हों की नज़ाकत में पिरो कर दिया है न मुझे , अब उसी के नीचे लेट कर अक्सर सोचा करता हूँ । वो पेड़ , पौधे , चाँद , तारे सब हमें पहचानते थे । याद है जब हम दोनों चटाई डाल कर खुले में लेटे रहते तो कैसे मैं अचानक से बोल पड़ता था "देख चाँद ने मुझे अभी अभी आँख मारी है ।" और तू मुस्करा कर कहती "हाँ मुझे भी चाँदनी के हर्फ़ से लिखे लफ़्ज़ आसमान में तैरते दिख रहे हैं" : *Raj loves his Rose* है न ? और हम खिलखिला पड़ते ।<br />
हमारे नसीब में अग्नि के चारों ओर फेरे नहीं लिखे थे । पर सामाजिक बन्धनों की सारी सीमाओं से परे भी कुछ रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं । हमने चाँद को साक्षी रखकर तारों की बारात निकाली थी और मुक़म्मल इश्क़ के अनगिनत फेरे लिए थे पूरे आकाश में । ये आसमान का टुकड़ा आज भी मेरा सहारा है जॉना । ये चाँद अब भी मुझसे बातें करता है । तेरा मेरे साथ न होना एक सामाजिक मर्यादा है । पर तेरा होकर रहना मेरा हक़ । और याद रख dear ज़िंदगी , मैं तब तक जिऊँगा जब तक तू तसव्वुर की इजाज़त देती रहेगी ।<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-15969533180614801902018-12-09T22:51:00.002-08:002018-12-09T22:51:43.323-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
यदि प्यार को दो पव्वा देसी शराब से ज़्यादा समझना चाहते हो , तो सुनो मेरी बात । जिसे तुम प्यार कहते हो न , वो कुंठा मात्र है । एक हँसती , खिलखिलाती लड़की यदि सबसे बच कर , झिझक कर रहने लगे , तो साफ है तुमने उसके पँख कतर दिए हैं । दोस्तों से सहज मेल-मिलाप पर भी तुम्हारे चेहरे के हाव भाव उसके दिल पर ताबूत में कील की तरह गड़ते हैं । वो दूरी बनाने लगती है । वो इसे तुम्हारे प्रति सम्मान एवम फ़िक्र का नाम देगी , तुम भी उसे उसके इस छद्म भाव मे धीरे धीरे घूटने दोगे । तुम चिंता करते हो उसकी , ख़्याल भी रखते हो उसका , पर दोस्त तुम ने उसके पर कतर दिए हैं , और ये प्यार तो क़तई नहीं है ।<br />
और तुम , शायद तुम्हारा अहम इसे स्वीकार ना करने दे , पर तुम सिर्फ इस्तेमाल हो रहे हो दोस्त । आवरण जो भी हो , तुम्हारे लिए सहज दिखना , सहज बने रहने से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है । कभी सोचा कि अपनी आज़ादी की दुहाई देती वो , तुम्हें कैसे मूक बधिर बना बैठी है । उच्छश्रृंखलता में सहजता नहीं है , पर तुम्हे डर है कि तुम दकियानूस कहलाओगे । और इस फेर मे निरन्तर घुटते हुए निभाते जा रहे हो ।<br />
और तुम , वो जो दोस्त है न तुम्हारी , तुम्हें पूरा नहीं माँगती कभी , हक भी नहीं जताती । पर तुम चाहिए उसे , हर हाल उसकी ज़िंदगी मे । वो प्यार में है - संबंधों और भावनाओं के सहज प्यार में । उसके सानिध्य में तुम्हे जो सुकूँ मिलता है न - वही असल भाव है प्रेम का । जानते हो क्यों ? क्योंकि वहाँ तुम अपने स्वाभाविक रूप में रह सकते हो ।<br />
मैं माँ की ममता और जन्म से बने नैसर्गिक रिश्तों पर बात नहीं कर रहा । वो तो और भी वृहद दायरा है , पर जो तुम बनाना चाहते हो अपने लिए प्रेम की नई दुनिया तो समझो --<br />
तुम अधूरे ठीक नहीं हो , पहले ख़ुद में पूर्ण बनो । किसी रिक्ति में , किसी मे पूरा होने के भाव मे प्रेम व्यापार ज़्यादा लगता है । तुम पूर्ण बनो , अब फिर भी कोई तुम्हारी अन्तर्रात्मा को छूता है , दिल मे ख़ास जगह बनाता है , परस्पर संवाद किसी और दुनिया मे ले जाते हैं , तो तुम प्रेम में हो । चूँकि तुम ख़ुद पूर्ण हो , तो तुम्हारी कुंठाएँ , तुम्हारे पूर्वाग्रह इस रिश्ते में ग्रहण नहीं लगाएंगे । जब मिलो , दिल खोल कर मिलो । साथ रहना ज़रूरी नहीं - पर जब भी साथ हो, जियो --भरपूर जियो -दोनों अपनी अपनी पूर्णता को नई ऊँचाइयों में ।<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-87355190487526847842018-08-18T21:38:00.002-07:002018-08-18T21:38:37.928-07:00प्रतीक्षा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*प्रतीक्षा*<br />
<br />
प्रतीक्षा :<br />
अब<br />
एक शापित सम्मोहन है !<br />
एक ऐसी उम्मीद<br />
जो उड़ान चुक गयी है !<br />
एक ऐसा स्वप्न<br />
जो श्रृंगार छोड़ चुका है !<br />
<br />
प्रतीक्षा :<br />
अब<br />
हाशिए पर सरकता<br />
एक चेतना शून्य सफ़र है !!<br />
<br />
पर ये<br />
अपने शैशव काल में<br />
उम्मीद के पँखों पर<br />
वाचाल थी !<br />
तब<br />
इसकी देह को<br />
ब्रह्माण्ड का विस्तार था !<br />
<br />
तब<br />
ये दौड़ती थी<br />
ऐसी गर्म रक्त शिराओं पर<br />
जो ज्वालामुखी का तेज़<br />
निगल जाएँ !<br />
<br />
तब<br />
हृदय की धमनियाँ<br />
भूचाल का कम्पन<br />
समेट लें !<br />
<br />
आँखें<br />
चाँद को<br />
पलकों से थपथपा दें !<br />
स्मृति के सम्मोहित पट<br />
तब मुस्कान की<br />
मीठी दहलीज़ पर ही<br />
खुलते थे !!<br />
पर जैसे धीरे-धीरे<br />
उम्र बढ़ती है<br />
बिना प्रयास के !<br />
प्रतीक्षा भी<br />
ढलती जाती है<br />
मरती जाती है<br />
धीरे-धीरे<br />
बेबस<br />
बिना यत्न के !!<br />
<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-87249140174489700122018-08-18T21:33:00.002-07:002018-08-18T21:33:47.928-07:00सिसकियाँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*सिसकियाँ*<br />
<br />
जीवन<br />
यत्न और यातनाओं<br />
उत्सव और पीड़ा<br />
से परे भी<br />
अनेक यात्राएँ करती है ।<br />
उनमे से<br />
एक यात्रा होती है<br />
ध्वनि की :-<br />
किलकारी से फूटते<br />
जीवन के प्रथम नाद से<br />
चीत्कार और रुदन<br />
के समापन तक<br />
जीवन<br />
ध्वनि तरंगों की एक<br />
मुसलसल यात्रा है ।<br />
इनमें से सबसे तन्हा<br />
उपेक्षित यात्रा होती है<br />
सिसकियों की यात्रा !!<br />
भरी महफ़िल में<br />
किसी अपने की<br />
फब्तियों पर<br />
नकली हँसी में<br />
ज़िंदा दफ़्न होती<br />
सिसकियाँ !!<br />
बच्चों के आगे<br />
अपमानित होकर<br />
अंगीठी की आँच में<br />
सुलगती सिसकियाँ !!<br />
छले जाने के बाद<br />
बन्द कमरे में<br />
तकिए से गला घोंटती<br />
सिसकियाँ !!<br />
अफ़सोस और पश्चाताप<br />
की चिता में<br />
निरन्तर धधकती<br />
सिसकियाँ !!<br />
ये सिसकियाँ<br />
स्पर्श की<br />
मोहताज होती हैं<br />
और जब कभी<br />
अपने भीतर ही<br />
किसी अनुभूति का<br />
स्पर्श पाती हैं :-<br />
तब फूट पड़ती हैं<br />
कविता , ग़ज़ल , लेख<br />
की शक्ल में<br />
अनहद से स्वर बनकर ।<br />
<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-73711019840885128362016-07-06T04:18:00.002-07:002016-07-06T04:18:50.394-07:00चल गुनाह क़बूलते हैं ।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
चल गुनाह क़बूलते हैं । स्वप्न की " पहली मिठास " का गुनाह । अरमानों की " पहली उड़ान " का गुनाह । दिल की पहली " तेज धड़कनों " का गुनाह । ज़िंदगी के " पहले स्पर्श " का गुनाह । किसी परम्परा के " प्रथम भंजन " का गुनाह । गुनाह के " पहले अपराध बोध " का गुनाह । ख़ुद से सहम कर जीने का गुनाह । फ़ेहरिस्त लम्बी है - पर चल इनमें से कुछ तो चुनते हैं । चल आज कुछ गुनाह क़बूलते हैं ।<br />
ये ज़िंदगी किसी मन्नत की मुहताज नहीं थी । बस घट गई , इत्तिफ़ाक़न । जैसे गूँजती हैं हर गली मुहल्ले में - किलकारियाँ । पर जनाब इन साँसों ने तो अपनी पहली करवट से ही बाँधना शुरू कर दिया था - मन्नतों का धागा , तमन्नाओं की शक्ल में । अन्नप्रासन की पहली चखन ने गूँथ दिया था, स्वाद का गुनाह - जिह्वा पर । लोरी की पहली मीठी थपकियों ने पिरो दिया था , स्वप्न का गुनाह - पलकों पर , नज़रों में । खिलौनों की पहली ज़िद , और उस पर जीते जंग ने , ठुमक कर खड़ा कर दिया था , गुनाहों का पूरा लश्कर - मन के भीतर । नसीहतों के पहले पाठ ने ही खोल दिए थे सारे बन्द दरीचे - जिज्ञासाओं के । और अब हसरतों का पूरा आसमान सामने है - अनन्त संभावनाओं के झिलमिलाते गुनाह से रौशन ।<br />
तुम रही थीं मेरे " पहले गुनाह " की साक्षी । पलकों की ओट से निहारने का मेरा पहला गुनाह तुम थीं । मर्यादाओं को लाँघने का मेरा पहला साहस तुम थीं । ज़िंदगी के मन्नत हो जाने की मेरी पहली कशिश तुम थीं । पर तुम तो समझ भी नहीं पाईं थीं , और इन सबमे मैं तेरा गुनाहगार हो चला था । पर इस अपराध बोध की पहली चुभन ने हुमककर धर दिया था छाती पर ज़िद का कच्चा लोहा । जिसे मैं तबसे पकाता आ रहा हूँ , हर नए गुनाह के साथ - ठोस और ठोस ।<br />
चल थोड़ा गुनाह तू भी साथ चुन ले । बिजली के तरंगों सी उस प्रथम स्पर्श का गुनाह - जो हथेलियों पर भी हृदय के स्पंदन सा स्पष्ट था । शिष्टाचार के आवरण में जिया हुआ वो हमारा पहला निजी लम्हा । तब हम दोनों गुनाहगार हो चले थे । समझ बूझ कर भी अनजान बने हुए गुनाहगार । पर तब सोचा था चल कुछ गुनाह यूँ भी जी लें - साँझा । गली मुहल्ले में घटती सी ज़िंदगी , तब मन्नत जो हो चली थी ।<br />
चल आज फिर से हासिए पर पड़ी तमन्नाओं की कोई पुरानी पोटली खोलते हैं , और उसमें से चुनते हैं , मन्नत का सबसे उधड़ा हुआ कोई धागा । और बाँध लेते हैं उसे नए रक्त की किसी उफनती धमनी पर । चल ये ख़्वाब ही सही - पर साथ साथ जिएँ , और बस इतना क़बूलें , पूरे मन से कि " हाँ , ऐ गुनाह क़बूल है , क़बूल है , क़बूल है " । और जब आँखें छलककर नम रह जाएँ ; होठ थरथराएँ , लरज़ जाएँ ; रक्त शिराएँ खौलकर थम जाएँ । तो लिख लें कहीं किसी सादे काग़ज़ पर " एक और गुनाह का क़बूलनामा " । बहला लें दिल को गुनाह के एक और हसीन किस्से से ।<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-23027095545625695572016-05-08T07:23:00.000-07:002016-05-08T08:39:34.707-07:00वो मैं ही था ।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गरजते बादलों में , जो घुप्प अँधेरी रात थी , वो मैं ही था ।<br />
बहा ले जाने को व्याकुल , जो बरसात थी , वो मैं ही था ।।<br />
महफ़िलों , नुमाइशों , औ' जश्न में दुनिया रही ;<br />
परेशानियों में , तल्ख़ जो हालात थे , वो मैं ही था ।।<br />
कहकहों में कटी शाम तेरी , हलचलों में दिन ;<br />
उचटती नींद के ,जो अनमने ख़यालात थे, वो मैं ही था ।।<br />
तजुर्बादार रहे लोग तेरे , सुलझे हुए सलाह ;<br />
हमारे बीच , जो उलझे हुए , सवालात थे, वो मैं ही था ।।<br />
हज़ार दाँव चली ज़िंदगी , किस्मत हज़ार चाल ;<br />
लाचार सी पसरी हुई , जो बिसात थी , वो मैं ही था ।।<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-86213471171225004582016-05-01T06:10:00.000-07:002016-05-08T07:40:56.460-07:00शिकवा , गिला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शिकवा , गिला कुछ भी न की , कि बेआबरू होता था वो ।<br />
पर रहा ये इल्ज़ाम सर पर ," कि हर बात पे रोता था वो "।।<br />
बंदिशें इतनी सहीं , कि मैं कभी " मैं " न रहा ;<br />
पर लोग उठने तक जनाज़ा , पूछा किये -- " कैसा था वो ? "<br />
या रब तू मुझसे पूछ मत , हिसाब मेरी ज़िंदगी का ;<br />
अच्छा रहूँ इस फ़ेर में , गुज़ारी जो , धोखा था वो ।।<br />
उस शाम मेरी ज़ब्ते- मोहब्बत , ज़ंजीरे जुनूँ थी , कुछ न था ;<br />
आज पछताता हूँ कि , " हाय इक मौका था वो । "<br />
नाश में हलचल हुई इक , बंद पलकें नम हुईं ;<br />
क्यूँ कफ़न सरका के मेरा ,बेसाख़्ता चौंका था वो ।<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-29956791585084144092016-05-01T06:06:00.002-07:002016-05-01T06:06:58.723-07:00मंज़िल रही न कोई<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मंज़िल रही न कोई , क़दमों को राह में ।<br />
चल पड़ी है साँसें , बेनामी सी चाह में ।।<br />
जिस्म भी अब रूह का ताबूत बन चुका है ;<br />
दिल दफ़्न है ख़ामोशियों की क़ब्रगाह में ।।<br />
आँखों में आँच लेकर , सपनों की चिता की ,<br />
ढूँढता हूँ ख़ुद को , सबकी निगाह में ।।<br />
ज़िंदगी में वैसी , तबीअत नहीं रही अब ;<br />
शामिल करूँ मैं कैसे , तुझको निबाह में ।।<br />
ख़्वाहिशें , हैरानियाँ , कमबख़्त से ख़याल ;<br />
कुछ दिल में रह गईं हैं , कुछ निकलीं हैं आह में ।।<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-91827750212599261042016-05-01T06:04:00.000-07:002016-05-01T06:04:05.872-07:00तड़प आँसुओं की<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तड़प आँसुओं की , मुहताज कब हुई ।<br />
दिल के टूटने पर , आवाज़ कब हुई ।।<br />
तुझको कहाँ ख़बर कि हम बेचैन बहुत हैं ;<br />
दिल के इस हालात पर , बात कब हुई ।।<br />
अपने ही ज़ख़्म पे हूँ मलता , लाचारियों का नमक ;<br />
पर ऐसे किसी वक़्त , मुलाकात कब हुई ।।<br />
झुलसी हो ज़मीं जैसे , फटते हैं होंठ प्यासे ;<br />
सहरा के मुसाफ़िर पे , बरसात कब हुई ।।<br />
<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-44960217465496276802016-03-26T09:55:00.000-07:002016-03-26T09:55:25.947-07:00होली के बाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ढोल-मजीरों ने पूरी रात पूर्णिमा के चाँद को थरथरा रखा था । अब ख़ामोशी थी । अबीर , गुलाल से किलकारियाँ मारता रंगीन चौराहा अब सुस्ता रहा था । होली के बाद की वो शांत सुबह थी । लाल बाग के मैदान के चारों ओर के रास्ते अलसाए से पड़े थे । मैं कुछ आश्वस्त सा होकर सूरज की पहली किरणों के साथ ही टहलने निकल पड़ा । मैंने वो सारे रंग देखे जो रास्तों पर औंधे पड़े थे , हल्के छाए बादलों और मद्धम बहती हवा ने उनमें एक अलग ही आभा बिखेरी हुई थी ।उनमें से कोई भी रंग मेरा नहीं था । मैं होली खेलता कहाँ हूँ ? वैसे ही जैसे दशहरे की भीड़ में ग़ुम नहीं होता , जैसे नए साल के जश्न में थिरकता नहीं । घर से कोसों दूर , दोस्तों से ज़ुदा , बस्तर के जंगलों के बीच ख़ुद भी खोया खोया सा । पर कभी- कभी सोचता हूँ कि मैं कुछ भी miss क्यों नहीं करता ? वक़्त ने सीने में ना जाने कौन सा धातू उड़ेल दिया है ? मैं मज़बूत अधिक हुआ हूँ या निष्प्राण ज़्यादा ???<br />
रंग से लाल हुई सड़क की छाती पर पीले , हरे गुलाल लिपटे पड़े थे । कहीं कहीं हल्की चमकती हुई चाँदी सी परत शरमाई हुई लग रही थी । ठीक वैसे ही जैसे मैंने झिझकते हुए उसके गालों पर गुलाल से सनी अपनी उँगलियाँ फेर दी थीं । रंग से पुता उसका चेहरा और सुर्ख़ हो गया था । बड़ी बड़ी कौतूहल भरी आँखों से उसने मुझे थाम लिया था । मुट्ठी भर गुलाल मेरे बालों में ठूंसने। पर ये सब मैं अब क्यों सोचता हूँ ? लम्हों की धीमी आँच में पके रिश्तों का मर्म तो कब का पीछे छूट चुका है । साथ ही वो उल्लास भी । " मुझे रंगों से एलर्जी है " :- - सब जानते हैं कि मैं झूठ बोलता हूँ , पर कोई भी ये कहाँ जान पाया कि मैं सिर्फ़ " रंग " कब बोलता हूँ ।<br />
तभी एक निरीह सा चौपाया , जो मानव सभ्यता की शुरुआत से ही हमसे वफ़ादार रहा है , केमिकल वाले रंगों से लाचार , घबराया सा गुज़रा , और विचार की श्रृंखला करवट लेती है । मुझे याद है कैसे हमारी प्यारी रूबी दिवाली के पटाखों से पस्त होकर काँपती हुई बिस्तर के नीचे दुबक जाती थी । और क्यों मैं आज भी पटाखे नहीं फोड़ता ? त्यौहार के मायने हर किसी के लिए एक से नहीं होते ।<br />
कुछ अनमने से वापस लौटते हुए ख़याल आया कि अभी बहुतों को wish करना रह गया है । मेरे लिए त्यौहार के मायने ही बदल गए हैं । संवेदनाओं की नई कसौटियाँ सामने आने लगी हैं । आज मैं सम्बन्धों को मधुरता से ना सही पर व्यवहार की चपलता से निभाना ज़रूर सीख गया हूँ ।<br />
<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-9651705526190840602015-08-23T07:05:00.002-07:002015-08-23T07:05:18.873-07:00Compatibility Issue<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ठोकर तुम्हारी थी :<br />
( इरादतन ना सही पर सम्भावनाओं का ज्ञान तो तुम्हे भी था । )<br />
और ज़ख़्म मेरे ।।<br />
( और ये स्वाभाविक भी है । )<br />
पर मेरी कराह भी तुम्हें ;<br />
मुख़ालफ़त का भ्रम देती है ।<br />
अब त्यौरियाँ तुम्हारी हैं :<br />
और सदमा मेरा ।।<br />
गोया कि मैं <br />
दर्द के अलग अलग निशाने पर हूँ ।<br />
और तुम्हे आजमाने हैं :<br />
शिकायतों के अनगिनत तीर ।।<br />
#राजेश पाण्डेय<br />
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-49362693796546206392015-08-22T07:14:00.001-07:002015-08-22T07:14:12.442-07:00मुनासिब जो होता ।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वो सपने ,ख़यालात ,वो बेबाक हँसना ;<div>
वो तारों को तकना , कभी रात में ;</div>
<div>
जो तुझे लेके उठती थी बेबस तमन्ना ;</div>
<div>
इक हँसी बन न जाये कू-ए-यार में ।</div>
<div>
बस इतना ही चाहा था इस प्यार में ।।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
"हार और जीत ": ये कोई बाज़ी नहीं थी,</div>
<div>
ना "पाने और खोने" का बाज़ार था ;</div>
<div>
गर कभी याद आऊँ, जो तन्हा रहो ;</div>
<div>
इक मुस्कान बिखरे जो रुख़्सार में ।</div>
<div>
बस इतना ही चाहा था इस प्यार में ।।</div>
<div>
# राजेश पाण्डेय</div>
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-24226057875435452502015-08-16T07:09:00.000-07:002015-08-19T06:27:50.941-07:00प्राकृत मैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मैं हमेशा से अभ्यस्त रहा हूँ , नीले अनंत की सनातन ख़ामोशी में कहीं दूर खोये रहने का । मुझे आदत सी रही है , उतावले बादलों के संग तैरकर , भींगकर कागज़ों में कविता बनकर उतर आने की । मैं हमेशा से सहज रहा हूँ ; पहाड़ों , नदियों , घाटियों , में अपनी आंतरिक ध्वनि की गूँज से बिखर जाने में । और यह सब इतना स्वाभाविक रहा है कि मुझे एहसास भी नहीं रहता कि प्रकृति की सारी छटाएँ ; मुस्कान बनकर मेरे अंतर्मन में तैरती रहती हैं ; आँखों और होंठों से छलकती रहती हैं । ठीक उसी तरह , जिस तरह मैं अलसभोर की अपनी पहली चाय लेकर घर के बाहर झूले पर बैठता हूँ , और आसपास के फूल ,पत्ते , टहनियाँ सब अपने भीतर सहेजी हुई , रात भर की नमी को सतह पर लाकर दमकने लगते हैं , मानों जतला रहे हों , कि उन्हें एहसास है कि मैं आसपास ही हूँ , और आनंदित हूँ । कितना शाश्वत रिश्ता है मेरा , अपने आसपास चारों ओर फैले और निखरे प्रकृति के असीमित रूपों से । मैं इनमें बिखर सा गया हूँ , ये मुझमें निखर सी गई हैं । प्रेम और आनंद अपनी उन्मुक्तता में ,प्रकृति के माध्यम से मेरे भीतर हमेशा सम्मोहित से रहते हैं ।<br />
#राजेश पाण्डेय<br />
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-39589763068281345422013-08-27T05:13:00.002-07:002015-07-11T00:50:42.903-07:00 स्पर्श के सोपान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<b> </b><img height="194" id="irc_mi" src="http://lh5.googleusercontent.com/-Ac0muJkoCd4/UbrlmS8dmdI/AAAAAAAAHc4/-ctPiJ2kmXI/s1600/Little-and-Small.png" style="margin-top: 99px;" width="291" /><b> </b><br />
<b> स्पर्श के सोपान </b><br />
अपनेपन से महकी मुस्कुराहटों का एक मुकम्मल सिलसिला रहा और उससे पनपे यक़ीन ने जब तेरी नाज़ुक हथेली मेरे भारी पंजों की जवाबदेह गिरफ़्त में सौंपी, तो वो हमारा पहला स्पर्श था .....और बस उतना ही , और कुछ नहीं !<br />
फिर बरस बीते , सानिध्य के अविस्मरणीय पल जिये , और एक सुबह तेरी आँखों से दो बूँद नमी हटा कर मैंने साधिकार तेरा माथा चूम लिया था ......पर वो भी बस उतना ही, उससे परे कुछ भी नहीं ।<br />
इन्द्रजाल सी भावनाओं की इस रवानी का एक पूरा दौर गुज़रा , फिर हमारे दरमियाँ गहराते रिश्ते में , कुछ अपनों की फ़िक़्रमंद दख़ल से हम सहमने लगे ! इल्ज़ाम बस इतना था कि समाज के स्थापित मापदंडों से कुछ ज़ियादा वक्त हमने साथ गुज़ारना चाहा , कसूर इतना कि नज़दीकियों की हमने कोई सीमित परिभाषा नहीं गढ़ी ; और मजबूरन हमने कुछ लम्हे चुराये , अपने लिए !! शायद उसी किसी दौर में एक शाम हमने एक दूसरे की आँखों में कुछ गहराई का इशारा पढ़ा और होंठ नज़दीकियाँ पाकर सकुचाकर रह गए थे ! अब ये रिश्ते का स्वाभाविक पक्ष था या समाज की अवांछित बाधाओं से आहत कुछ और ????? मेरे लिए यह अब भी अनुत्तरित है , पर तुम भी मानोगी कि वो स्पर्श की मधुरतम् प्रतिध्वनि थी ! पर बस उतना ही ,आगे कुछ और नहीं !<br />
सानिध्य और स्पर्शों के निहायत सूक्ष्म संकेतों पर तपा और पनपा हमारा रिश्ता आज शब्दों और संदेहों की निर्मम शल्य चिकित्सा में ठंडा पड़ा है ......जहरीले प्रश्नचिह्नों की शरशैया पर इच्छामृत्यु को शापित ! मज्बूरी ऐसी , की जब तलक इस रिश्ते पे गहराए रहस्यों की सारी गुत्थियाँ सुलझा ना लूँ , ये दम भी तो नहीं तोड़ सकता !<br />
अवचेतन के नीले अनंत में तैरते ख़्वाबों के इन्द्रधनुषी बादलों का तिलिस्म टूट चुका है !भावनाओं का निष्छल प्रवाह दिल के इर्द गिर्द कहीं सशंकित थमा हुआ है , आँखों में घड़ी- घड़ी उतर आने वाले संवेदनाओं के सोते लुप्त हो रहे हैं ! मैं रिश्तों के सारे अनसुलझे धागों को समाज की पुरातन पोटली में लपेटकर चल पड़ा हूँ , निर्मम यथार्थ की राह !! कभी ज़िम्मेदारी के काँधों पर पोटली बदलता तो कभी सिर पर बोझ की तरह रख कर हठात् लड़खड़ाता ! स्पर्शों के मर्म को दिल की कंदराओं में सुन्न करता !!<br />
# <i><b>राजेश पाण्डेय </b></i></div>
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-44671700156932565112013-06-27T10:47:00.003-07:002015-07-11T00:19:30.544-07:00Himalayan Revenge<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
-: हिमालय का दर्द:-<br />
___________________<br />
सैलाब का मंज़र है , लाशें जहाँ - तहाँ रे !<br />
उफ़नते आँसुओं , से आस्माँ निहारें !!<br />
कुछ ग़लतियाँ हमारी , कुछ तल्ख़ियाँ तुम्हारी ;<br />
क़ुदरत का जो क़हर हो , पर आस्था से हारे !!<br />
मेरी इल्तिजा है तुझसे , गर मेरा गुनाह ठहरा ;<br />
बच्चों को " लाश " ना कर , आबरू बचा रे !!<br />
आस्माँ से आये कुछ हाथ फरिश्तों के ;<br />
कुछ नोचते हैं लाशें , चौखट पे ही तुम्हारे !!<br />
" दर्शन " को सब यहाँ थे , क्या ये भी ख़ता ठहरी ?<br />
ये कैसा न्याय तेरा ? पूछते हैं सारे !!<br />
<i># राजेश पाण्डेय</i></div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-84693260741891934892012-12-21T23:17:00.002-08:002015-07-11T00:51:28.432-07:00दिल दहलाती दिल्ली !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<img alt="It is entirely in keeping with Indian tradition and culture to blame and shame the victim of rape rather than the rapist." src="http://economictimes.indiatimes.com/thumb/msid-17717030,width-310,resizemode-4/rape.jpg" /><br />
<br />
<br />
<br />
क्यूँ आज उस कराहती मर्दानी को देखिये ?<br />
क्यूँ दरिंदगी की दिल्ली - निशानी को देखिये ?<br />
होता है यह तमाशा , हर दौर , हर शहर :-<br />
जाईए आप अपनी परेशानी को देखिये !!<br />
बीमार मर्दानगी से मग़रूर यहाँ लोग ;<br />
शराफ़त की नपुंसक जवानी को देखिये !!<br />
क्यूँ रात में भी बेटियाँ महफ़ूज़ चले कोई ?<br />
सड़कों पर पसरी हैरानी को देखिये !!<br />
जड़ते हैं नसीहत और बहकते नशे में हैं ;<br />
आँखों के मरते हुए पानी को देखिये !!<br />
" नर्क " को भी क्या जगह दें , मिसाल में :-<br />
शर्मसार होती राजधानी को देखिये !!<br />
<br />
<b> # राजेश पाण्डेय </b><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-30544886042241319722012-03-27T22:30:00.001-07:002015-07-16T05:50:10.258-07:00हम सब victim<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<strong><u>हम सब victim </u></strong></div>
<div>
</div>
<div>
समस्या सिर्फ़ ये नहीं है :</div>
<div>
कि तुम्हारा भरोसा क्यूँ टूटा ?</div>
<div>
पर सवाल ये भी ज़रूर है ;</div>
<div>
कि तुमने :</div>
<div>
ऐसा भरोसा गढ़ा ही क्यूँ ?</div>
<div>
मेरी निजता के आग्रह से उपजे ;</div>
<div>
प्रश्न चिह्नों पर </div>
<div>
तुम अपना निष्कर्ष थोप दो ;</div>
<div>
यह तो मुझे भी ग्राह्य नहीं !!</div>
<div>
पर दोष तुम्हारा भी नहीं है ;</div>
<div>
( अपने विश्वास के दायरे में )</div>
<div>
पर इतना तजुर्बा मेरा भी है :</div>
<div>
कि समाधान :</div>
<div>
शंकाओं :</div>
<div>
और उस पर त्यौरियों के पलटवार </div>
<div>
में कभी नहीं रहा !!</div>
<div>
This is a strange world : where everyone is a victim ; for no one's fault.</div>
<div>
# <strong> RAJESH PANDEY</strong></div>
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-19088354201128415092011-09-13T05:14:00.000-07:002015-07-11T00:36:06.391-07:00इक ख़्वाब सा देखा मैंने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b> </b><br />
<b> <u> इक ख़्वाब सा देखा मैंने </u></b><u><br />
</u><br />
नम आँखों से टपकती थी बूंदें - ओस सी :<br />
दूब की नोक पे मोती सी पिरो आई है !!<br />
ज़ब्त तल्ख़ियां करती हुई ; फ़िक़ी सी हँसी ;<br />
डाल पर फुदकते हुए बुलबुल पे भरमाई है !!<br />
कुछ ख़ामोश से पड़ते हैं , क़दमों के निशां <br />
तन्हा, दरख़्तों के कहीं बीच धंसा जाता हूँ <br />
न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!<br />
<br />
रात की ख़ामोश सी चादर में सितारों सी सलवटें<br />
दुबक कर ; नीले आसमान पे कहीं गम सा हूँ मै <br />
उजले चाँद को छेड़ते ; फाहों से, टुकड़े बादल <br />
हवा मद्धम सी चली है मगर , गुमसुम सा हूँ मै !<br />
नींद सदियों की हसरत सी है ठिठकी मुझ पर :<br />
आँख भारी है, दिल बेचैन , जगा जाता हूँ !<br />
न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!<br />
# <i> राजेश पाण्डेय </i></div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-12658247373171662512011-08-19T02:44:00.000-07:002015-08-09T08:19:32.480-07:00सावन : एक प्रेम गीत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div closure_uid_24noof="99">
<img height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaiCVz9vTa7pSmSHHYfCZ_QMYMosoYZPlVATxjyENR1He-E0zdRDJZPJJ24QK6azHL9TzTd8_v5Ht6RULQw3GpxG4FNOQ8lHTESvmr7uFQt1jQXHlSDUWWaOrEqxvRMvsS3sxUNlkNR40/s320/rain-17.jpg" width="320" /></div>
<blockquote dir="ltr" style="margin-right: 0px;">
<blockquote dir="ltr" style="margin-right: 0px;">
<div>
<strong><u>सावन : एक प्रेम गीत </u></strong></div>
</blockquote>
</blockquote>
<div>
बहकी सी हवा , इक शोख घटा ;</div>
<div>
घड़ - <span id="6_TRN_n">घड़ गरजे दीवानी रे !</span></div>
<div>
नील गगन को आज सताते ,</div>
<div>
बादल , बिजली , पानी रे !! </div>
<div>
बूँदें , धड़कन - धड़कन गिरतीं ,</div>
<div>
छाती : घर का आँगन !!</div>
<div>
सावन ने ये क्या कर डाला ?</div>
<div>
अपनी भरी जवानी रे !!</div>
<div>
हरियाली का यौवन पाकर ,</div>
<div>
धरती क्यूँ सकुचाये ?</div>
<div>
केले के चिकने पत्तों पर ,</div>
<div>
बूँदें : पानी पानी रे !!</div>
<div>
सूरज को भी लील चुकी है ,</div>
<div>
काली , गहरी , घटाएं ;</div>
<div>
भरी दुपहरी , स्वप्न - साँझ का ;</div>
<div>
निश्छल प्रेम कहानी रे !!</div>
<div>
अलसाए से पेड़ खड़े हैं ,</div>
<div>
छेड़ - छाड़ सी लगी झड़ी !</div>
<div>
धरती पर खनखन करती ,</div>
<div>
ये कैसी चंचल वाणी रे !!</div>
<div>
कुछ गीत लिखूँ , कुछ राग रचूँ ,</div>
<div>
कुछ बात करूँ मैं ख़ुद से !!</div>
<div>
चाय की चुस्की दिल तक जाती ,</div>
<div>
<div closure_uid_7wf1c6="98">
मन को सूझे शैतानी रे !! </div>
<div closure_uid_7wf1c6="98">
# <em closure_uid_7wf1c6="100">राजेश पाण्डेय </em></div>
</div>
<div>
</div>
<div>
</div>
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-54622106294279355902011-08-12T04:18:00.001-07:002015-07-11T00:57:42.756-07:00खुद की तलाश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div closure_uid_694dxq="114" style="text-align: center;">
<div closure_uid_tzswkl="109">
<strong></strong></div>
<strong>खुद की तलाश और प्रकृति!!</strong></div>
<div closure_uid_694dxq="115">
रात ने घटाओं की गड़गड़ाहट <span id="6_TRN_b"> के साथ कुछ नर्म बौछारों का तान छेड़ा और मै पलकों में , जागती आँखों के प्रश्नचिन्हों की नमी सहेजकर , सलवटों पर बिछ चुका था ! बाहर सरसराती हवाओं ने शायद पत्तियों को थपकियाँ दीं थीं , और मै नींद की बाँहों में कब समा गया - भान नहीं रहा !! पर न जाने कैसे ,गरजती बिजलियों से , गहरे हुए अवसाद का एक दुःस्वप्न् कौंध गया :-</span></div>
<div>
<div closure_uid_tzswkl="164">
कौन है ये ? शंकाओं , उलझनों और कौतुहल की सलीब पर रिसते ज़ख़्म की नुमाइश को टंगा ?तन्हा, सिसकता वजूद ! अक़्स पहचाना सा !! डूबती नब्ज़ और विचलित जिजीविषा में कुछ अपनेपन का भान !! साँसों की थकी , बेसुर लय से निकलती वो मर्मभेदी , मद्धम कराह...</div>
</div>
<div>
अरे ठहर !! ये तो मै हूँ -- दमित आकांक्षाओं की शापित छवि सा !! जीवन के सम्मोहन से पूर्ण मुक्ति को छटपटाता , और इस आत्मध्वंसात्मक प्रयास में , गहरे और गहरे धंसता हुआ ! अपनी नियति के एकांत में विलीन !!</div>
<div>
पर फिर बाहर शायद बारिश थमी थी और आसमान साफ़ धुल कर खिल रहा था ! नीले शांत अनंत में थिरकते , दमकते चाँद ने अपना शाश्वत प्रभामंडल बिखेरा - और मैं हठात् , अपलक उसे निहारता -स्मृति पटल में जीवन का एक अलग ही प्रतिबिम्ब <span id="6_TRN_6o">गढ़ने लगा !! सरसराते पत्तों से आलिंगनबद्ध <span id="6_TRN_6u"> बहती मद्धम बुदबुदाती हवा , उल्लास का एक दूरस्थ अनुगूँज-सा आभास देने लगी ! </span></span><br />
समझ में आया कि जीवन , शायद ऐसे ही चन्द लम्हों की सुकून की तलाश में , अपनी सारी साँसे गिरवी रखने की शर्त स्वीकारता है ! जीवन में रस के बाँझपन से उकता कर यदि कोई खुद्दारी के साथ तन्हा रहने की अभिलाषा पालता हो - तो अभिप्रेरणा स्रोत प्रकृति की ये छटाएं ही हो सकती हैं :- एक बेबूझ निमंत्रण , बेपरवाह खिलखिलाहट का मीठा इशारा ।<br />
<strong style="text-align: right;"> # राजेश पाण्डेय</strong></div>
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-15782523747437703632011-06-19T23:53:00.000-07:002015-07-11T01:03:45.513-07:00कुछ अनकही सी !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<strong><u></u></strong><br />
<strong><u>कुछ अनकही सी !!</u></strong></div>
<br />
<div>
तुम मेरी सारी शंकाओं का समाधान हो</div>
जीवन के प्रति<br />
विचलित होती आस्था<br />
और जज़्बात की पाकीज़गी पर<br />
डगमगाती निष्ठा का<br />
तुमसे सुंदर विराम हो नहीं सकता !!<br />
तुम्हारे सानिध्य के<br />
विचार मात्र से<br />
जीवन की चढ़ती दुपहरी का<br />
एक नया स्वप्न बुनने बैठा हूँ !!<br />
बेबाक धड़कनों<br />
और सकुचाते <span id="6_TRN_1p">होठों</span><br />
से अलहदा<br />
तुम सांझ का विश्राम हो !!<br />
तेरे साथ जीवन के<br />
आखरी सफ़र का एहसास<br />
यूँ है मानो<br />
जिस्म ने<br />
आत्मा से पनाह माँगा हो !!<br />
और बड़ी मासूमियत से ;<br />
अवचेतन में<br />
अमर हो जाना चाहता हो !!<br />
तुम साथ हो<br />
तो यह अमरत्व भी संभव है !!<br />
तुम साथ हो तो अब सब संभव है !!<br />
<em> # राजेश पाण्डेय</em></div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-50394139085543759992011-06-17T00:39:00.000-07:002015-07-11T01:04:13.195-07:00एक परवान चढ़ते सपने का उड़न ताबूत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<strong><u><img src="http://www.scarefx.com/images/coffin_project/coffin_construction_13.jpg" height="337" id="il_fi" style="padding-bottom: 8px; padding-right: 8px; padding-top: 8px;" width="500" /></u></strong><br />
<strong><u>एक परवान <span id="6_TRN_3">चढ़ते सपने का उड़न ताबूत !!</span></u></strong></div>
<br />
<div>
जब विचारों की उजास, हमें साफ़गोई अभिव्यक्ति की पीड़ा पीने का साहस दे दे , तब संभव है कि गुज़श्ता उम्र की बेजा भूलें सिर्फ भावनात्मक प्रतिध्वनि का स्वांग ना रचें ! नंगे हुए सच से आनंद कितना मिलता है यह तो अनुभव नहीं , पर सहमा हुआ साहस भी सुकून बहुत पाता है ! नफा- नुकसान के बही खाते से परे आज एक दबा <span id="6_TRN_26">आक्रोश , अपने भीतर ही ज्वालामुखी के विस्फोट सा हो जाना चाहता है !</span></div>
<br />
<div>
मोह बुरा नहीं ; स्वार्थ गुनाह नहीं ; पर पाकीज़गी का भ्रम , ईमान का झांसा , परम सत्य के सामने कब बेआबरू हो जाएँ और प्रेम को भूख और त्याग को महज़ अवसर भुनाने की कवायद साबित कर दें कहना कठिन है ! नए पंखों से सपनों की उड़ान भरी थी , पर जीवन तो एक उड़ते ताबूत का भ्रम देता है ! क्या पंखों को भरोसा कम दंभ ज्यादा था ? या उड़ान में सहजता कम बेक़रारी अधिक थी ?</div>
<br />
<div>
कौन जाने यह उड़ना था भी या नहीं ? सापेक्षिक रूप से तो कहीं कोई ऊँचाई<span id="6_TRN_59"><span id="6_TRN_5b"> होती भी नहीं !</span></span></div>
# राजेश पाण्डेय<br />
<div>
</div>
</div>
RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-11246833433483259962011-06-01T01:14:00.000-07:002015-07-11T01:04:44.463-07:00ख़ुद का पंचनामा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<strong>ख़ुद का पंचनामा </strong><br />
<div align="center">
</div>
</div>
<div align="left" style="text-align: center;">
आज बरसों बाद मैंने अपनी diary entries पढ़ीं ! निजी अनुभवों से रंगे कुछ पन्नों ने आँखें नम कीं ; कुछ गुदगुदा गए , पर ऐसी ढेरों entries हैं जो चाबुक की तरह आत्मा पर बरस रहीं हैं ! हम ख़ुद को कितना कम समझते हैं ! जैसी परिस्थितियाँ मिलीं , उसी सुविधा के अनुरूप अपना प्रपंच ( so called moral codes) रच लेते हैं ! परिस्थितियाँ बदलीं , तो हम अपने बदले हुए मुखौटे के लिए नया justification ढूँढ लेते हैं !<br />
सच है , इन्सान सबसे ज्यादा ख़ुद को चाहता है ; पर इसे स्वीकार करने में बड़ी हिचक है ! क्यूँकि हमने स्वयं को कुछ दूसरे ही पहनावे में दुनिया के रंग मंच में पेश किया है !और इस Cat -walk में अपनी स्वाभाविक चाल<span id="6_TRN_4m"> या तो भूल गए हैं ; या फिर अपने बेडरूम अथवा बाथरूम के floor तक सीमित कर दिया है !</span></div>
<div align="left" style="text-align: center;">
जीवन के भूगोल के हर क्षेत्र में हमने अपनी नैतिक सभ्यता विकसित नहीं की है ! एक बड़ा हिस्सा अब भी मन के <span id="6_TRN_a5">बीहड़ </span> के रूप में विद्रोही है ; जहाँ मन की भी नहीं चलती ! <span id="6_TRN_a5">बीहड़ </span> का अपना अलग वजूद है , जिसे समझना और सँवारना बाकी है ! आज बरसों बाद , आईने के सामने मैं</div>
<div align="left" style="text-align: center;">
अपने ही प्रश्नों पर निरुत्तर हूँ ! कुछ भी परम सत्य नहीं है और यदि है भी तो वह "सापेक्षिक" है :- Theory of relativity applies to Truth also .<br />
पर जैसा कि हम जानते हैं , की जिन सभ्यताओं ने अपने इतिहास से सबक़ नहीं लिया वे नष्ट हो गयीं ; ठीक उसी तरह अपने जीवन के अनुभवों से ना सीखने वाले लोग , अपना " मूल व्यक्तित्व " कहीं खो देते हैं ! राहत इतनी ही है , कि " आत्मा" अभी मरी नहीं है - क्यूँकि कचोट रही है !ख़ुद पर भरोसा सिर्फ इतना है कि <strong></strong>सीखने<br />
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और परिपक्व होने की ईमानदार कोशिश जारी है !</div>
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May God .........oooops....the mistake again. Let me help myself !!<br />
# राजेश पाण्डेय</div>
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RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-16981053556951023712011-05-29T23:52:00.000-07:002015-07-12T07:02:32.040-07:00दर्द का दोगलापन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<strong><u>दर्द का दोगलापन : एक व्यंग्य </u></strong></div>
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हाँ मैंने खरी खोटी सुनाई थी :-</div>
पर पूरा यक़ीन था ;<br />
कि तुम समझोगी :-<br />
" मेरी हताशा !! "<br />
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पर अब तुम्हे सुबकते देख </div>
मैं ख़ुद को छला ;<br />
महसूस कर रहा हूँ !<br />
<strong>दोस्तों </strong>:<br />
" क्या तुम्हारा भी भरोसा :<br />
कभी इस तरह टूटा है ?"<br />
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ना जाने ये लड़कियां </div>
कब mature होंगीं ?<br />
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हाँ तुमने " तथ्य " छिपाए थे :</div>
क्यूँकि तुम्हें पूरा यक़ीं था<br />
<em>" कि मैं नहीं समझूँगा !!"</em><br />
पर अब मेरी शिकायत :<br />
तुम्हें " आरोप " का सदमा देती है !<br />
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ना जाने ये लड़के</div>
कब परिपक्व होंगे ?<br />
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<strong> # राजेश पाण्डेय</strong> </div>
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RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2912978952794723121.post-25322336304502813832011-05-25T03:21:00.000-07:002015-07-12T07:55:51.633-07:00Let's Salute to Rajesh Pawar !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<strong><u>एक दोस्त की</u></strong><br />
<strong><u>शहादत</u></strong><strong><u>!!</u></strong></div>
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23 मई 2011 की शाम, लगभग 1645 बजे , गरियाबंद से पि.डब्ल्यू. डी. के Executive Engineer मेरे पास Homeguard barrack की डिजाईन पर चर्चा करने आए थे ! राजेश पवार ,Addl. S. P. गरियाबंद ने कुछ दिन पहले ही मुझसे कहा था " भाई , इंजीनियर साहब आही , प्राकलन के कापी देके , समझा देबे ! " मै , लगभग उसे धमका गया था ; " यार साल भर से मैं रायपुर में हूँ , अब इसी बहाने तू भी मिलने आजा ! "कुछ हल्की - फुल्की हँसी मज़ाक़ भी हुई !</div>
इंजीनियर साहब के साथ प्राकलन और नक़्शे पर चर्चा करते हुए मैंने सोचा चलो राजेश को बता दूँ की काम हो गया है ! लगभग 1700 बज रहे होंगे , मैंने ४-५ बार प्रयास किया , हर बार "नेटवर्क coverage से बाहर आ रहा था ! " तब तक एनकाउन्टर हो चुका रहा होगा ; " आत्मा ही नेटवर्क से बाहर जा चुकी होगी !" क्या पता पहली मिस कॉल के साथ ही पहली गोली भी छाती भेद गयी हो ! सिहरन सी पैदा होती है , अब जब सोचता हूँ !<br />
उसने वादा किया था , एक सप्ताह के अन्दर वो आएगा , और हम पुलिस अकादमी की पुरानी बातें करेंगे ! पर विडंबना देखो , 24 मई 2011 को दोपहर ठीक मेरे बंगले के सामने हॉस्पिटल में , मै उसकी पोस्ट मोर्टेम होते देख रहा था ! मुझे और लक्ष्मी को कई मिनट लगे " मृत शरीर " को शिनाख़्त करने में ! ऐ कैसा वादा निभाया दोस्त , मैंने तुझे सिर्फ " स-शरीर " नहीं बुलाया था , तेरी अल्हड और " कुछ बेमानी सी " बातों की कशक रह ही गयी ! राजकीय सम्मान के साथ ताबूत पर माला <span id="6_TRN_8o">चढ़ा कर सलूट करते एक बारगी ही दिमाग में बात कौंध गयी , कि क्या एनकाउन्टर के वक्त अकादमी के हम २३ साथियों में से किसी की याद आई होगी ? उस्ताद का सबक तो जरूर दोहरा गया होगा :- " Rifle पर मजबूत पकड़ और दुरस्त शिस्त!"</span><br />
पर ज़िन्दगी की बदनीयती भी देखो , हमारे Batch के सबसे शेर-दिल साथी को " कायरों " ने गाड़ी से उतरने का भी मौका नहीं दिया ! LMG की Close - Range Fire :-और शेर की छाती थी सबसे सामने :- शायद उस वक़्त भी वह <span id="6_TRN_bi">हमेशा की तरह ठहाके लगा रहा होगा , बेबाक , बेफ़िक्र !!</span><br />
आओ हम सब मिलकर उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करें !!<br />
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<span style="text-align: right;"> # </span><strong style="text-align: right;">राजेश पाण्डेय</strong></div>
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RAJESH PANDEYhttp://www.blogger.com/profile/03270144891906521982noreply@blogger.com2