Sunday 9 December 2018

यदि प्यार को दो पव्वा देसी शराब से ज़्यादा समझना चाहते हो , तो सुनो मेरी बात । जिसे तुम प्यार कहते हो न , वो कुंठा मात्र है । एक हँसती , खिलखिलाती लड़की यदि सबसे बच कर , झिझक कर रहने लगे , तो साफ है तुमने उसके पँख कतर दिए हैं ।  दोस्तों से सहज मेल-मिलाप पर भी तुम्हारे चेहरे के हाव भाव उसके दिल पर ताबूत में कील की तरह गड़ते हैं । वो दूरी बनाने लगती है । वो इसे तुम्हारे प्रति सम्मान एवम फ़िक्र का नाम देगी , तुम भी उसे उसके इस छद्म भाव मे धीरे धीरे घूटने दोगे । तुम चिंता करते हो उसकी , ख़्याल भी रखते हो उसका , पर दोस्त तुम ने उसके पर कतर दिए हैं , और ये प्यार तो क़तई नहीं है ।
           और तुम , शायद तुम्हारा अहम इसे स्वीकार ना करने दे , पर तुम सिर्फ इस्तेमाल हो रहे हो दोस्त । आवरण जो भी हो , तुम्हारे लिए सहज दिखना , सहज बने रहने से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है । कभी सोचा कि अपनी आज़ादी की दुहाई देती वो , तुम्हें कैसे मूक बधिर बना बैठी है ।  उच्छश्रृंखलता में सहजता नहीं है , पर तुम्हे डर है कि तुम दकियानूस कहलाओगे । और इस फेर मे निरन्तर घुटते हुए निभाते जा रहे हो ।
    और तुम , वो जो दोस्त है न तुम्हारी , तुम्हें पूरा नहीं माँगती कभी , हक भी नहीं जताती । पर तुम चाहिए उसे , हर हाल उसकी ज़िंदगी मे । वो प्यार में है -  संबंधों और भावनाओं के सहज प्यार में । उसके सानिध्य में तुम्हे जो सुकूँ मिलता है न - वही असल भाव है प्रेम का । जानते हो क्यों ? क्योंकि वहाँ तुम अपने स्वाभाविक रूप में रह सकते हो ।
   मैं माँ की ममता और जन्म से बने नैसर्गिक रिश्तों पर बात नहीं कर रहा । वो तो और भी वृहद दायरा है , पर जो तुम बनाना चाहते हो अपने लिए प्रेम की नई दुनिया तो समझो --
      तुम अधूरे ठीक नहीं हो , पहले ख़ुद में पूर्ण बनो । किसी रिक्ति में , किसी मे पूरा होने के भाव मे प्रेम व्यापार ज़्यादा लगता है । तुम पूर्ण बनो , अब फिर भी कोई तुम्हारी अन्तर्रात्मा को छूता है , दिल मे ख़ास जगह बनाता है , परस्पर संवाद किसी और दुनिया मे ले जाते हैं , तो तुम प्रेम में हो । चूँकि तुम ख़ुद पूर्ण हो , तो तुम्हारी कुंठाएँ , तुम्हारे पूर्वाग्रह इस रिश्ते में ग्रहण नहीं लगाएंगे । जब मिलो , दिल खोल कर मिलो । साथ रहना ज़रूरी नहीं - पर जब भी साथ हो,  जियो --भरपूर जियो -दोनों अपनी अपनी पूर्णता को नई  ऊँचाइयों में ।
        # राजेश पाण्डेय

Saturday 18 August 2018

प्रतीक्षा

*प्रतीक्षा*

प्रतीक्षा :
अब
एक शापित सम्मोहन है !
एक ऐसी उम्मीद
जो उड़ान चुक गयी है !
एक ऐसा स्वप्न
जो श्रृंगार छोड़ चुका है !

प्रतीक्षा :
अब
हाशिए पर सरकता
एक चेतना शून्य सफ़र है !!
             
              पर ये
             अपने शैशव काल में
             उम्मीद के पँखों पर
             वाचाल थी !
             तब
             इसकी देह को
            ब्रह्माण्ड का विस्तार था !

तब
ये दौड़ती थी
ऐसी गर्म रक्त शिराओं पर
जो ज्वालामुखी का तेज़
निगल जाएँ !

तब
हृदय की धमनियाँ
भूचाल का कम्पन
समेट लें !

आँखें
चाँद को
पलकों से थपथपा दें !
स्मृति के सम्मोहित पट
तब मुस्कान की
मीठी दहलीज़ पर ही
खुलते थे !!
                  पर जैसे धीरे-धीरे
                  उम्र बढ़ती है
                  बिना प्रयास के !
                  प्रतीक्षा भी
                  ढलती जाती है
                  मरती जाती है
                  धीरे-धीरे
                  बेबस
                  बिना यत्न के !!
         
           # राजेश पाण्डेय

सिसकियाँ

*सिसकियाँ*

जीवन
यत्न और यातनाओं
उत्सव और पीड़ा
से परे भी
अनेक यात्राएँ करती है ।
उनमे से
एक यात्रा होती है
ध्वनि की :-
             किलकारी से फूटते
             जीवन के प्रथम नाद से
             चीत्कार और रुदन
             के समापन तक
             जीवन
             ध्वनि तरंगों की एक
              मुसलसल यात्रा है ।
इनमें से सबसे तन्हा
उपेक्षित यात्रा होती है
सिसकियों की यात्रा !!
                भरी महफ़िल में
                किसी अपने की
                फब्तियों पर
                नकली हँसी में
                ज़िंदा दफ़्न होती
                सिसकियाँ !!
बच्चों के आगे
अपमानित होकर
अंगीठी की आँच में
सुलगती सिसकियाँ !!
                छले जाने के बाद
                बन्द कमरे में
                तकिए से गला घोंटती
                सिसकियाँ !!
अफ़सोस और पश्चाताप
की चिता में
निरन्तर धधकती
सिसकियाँ !!
                  ये सिसकियाँ
                  स्पर्श की
                  मोहताज होती हैं
                 और जब कभी
                 अपने भीतर ही
                 किसी अनुभूति का
                 स्पर्श पाती हैं :-
तब फूट पड़ती हैं
कविता , ग़ज़ल , लेख
की शक्ल में
अनहद से स्वर बनकर ।
           
                   # राजेश पाण्डेय