Sunday 16 August 2015

प्राकृत मैं

          मैं हमेशा से अभ्यस्त रहा हूँ , नीले अनंत की सनातन ख़ामोशी में कहीं दूर खोये रहने का । मुझे आदत सी रही है , उतावले बादलों के संग तैरकर , भींगकर कागज़ों में कविता बनकर उतर आने की । मैं हमेशा से सहज रहा हूँ ; पहाड़ों , नदियों , घाटियों , में अपनी आंतरिक ध्वनि की गूँज से बिखर जाने में । और यह सब इतना स्वाभाविक रहा है कि मुझे एहसास भी नहीं रहता कि प्रकृति  की सारी छटाएँ ; मुस्कान बनकर मेरे  अंतर्मन में तैरती रहती हैं ; आँखों और होंठों से छलकती रहती हैं । ठीक उसी तरह , जिस तरह मैं अलसभोर की अपनी पहली चाय लेकर घर के बाहर झूले पर बैठता हूँ , और आसपास के फूल ,पत्ते , टहनियाँ सब अपने भीतर सहेजी हुई , रात भर की नमी को सतह पर लाकर दमकने लगते हैं , मानों जतला रहे हों , कि उन्हें एहसास है कि मैं आसपास ही हूँ , और आनंदित हूँ । कितना शाश्वत रिश्ता है मेरा , अपने आसपास  चारों ओर फैले और निखरे प्रकृति के असीमित रूपों से । मैं इनमें बिखर सा गया हूँ , ये मुझमें निखर सी गई हैं । प्रेम और आनंद अपनी उन्मुक्तता में ,प्रकृति के माध्यम से मेरे भीतर हमेशा सम्मोहित से रहते हैं ।
                                           #राजेश पाण्डेय
                

5 comments:

  1. प्रकृति प्रेम ... सबसे सुन्दर समय !

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  2. तुम कहाँ हो आजकल ?फेसबुक से भी गायब हो

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  4. I m presently posted at Jagdalpur . I m pretty active on fb on daily basis ; but seems like some technical glitched has occurred as I too m not able to trace u there .

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