Sunday 19 June 2011

कुछ अनकही सी !!


कुछ अनकही सी !!

तुम मेरी सारी शंकाओं का समाधान हो
जीवन के प्रति
विचलित होती आस्था
और जज़्बात की पाकीज़गी पर
डगमगाती निष्ठा का
तुमसे सुंदर विराम हो नहीं सकता !!
तुम्हारे सानिध्य के
विचार मात्र से
जीवन की चढ़ती दुपहरी का
एक नया स्वप्न बुनने बैठा हूँ !!
बेबाक धड़कनों
और सकुचाते होठों
से अलहदा
तुम सांझ का विश्राम हो !!
तेरे साथ जीवन के
आखरी सफ़र का एहसास
यूँ है मानो
जिस्म ने
आत्मा से पनाह माँगा हो !!
और बड़ी मासूमियत से ;
अवचेतन में
अमर हो जाना चाहता हो !!
तुम साथ हो
तो यह अमरत्व भी संभव है !!
 तुम साथ हो तो अब सब संभव है !!
                                   # राजेश पाण्डेय

Friday 17 June 2011

एक परवान चढ़ते सपने का उड़न ताबूत


एक परवान चढ़ते सपने का उड़न ताबूत  !!

जब विचारों की उजास, हमें साफ़गोई अभिव्यक्ति की पीड़ा पीने का साहस दे दे , तब संभव है कि गुज़श्ता उम्र की बेजा भूलें सिर्फ भावनात्मक प्रतिध्वनि का स्वांग ना रचें ! नंगे हुए सच से आनंद कितना मिलता है यह तो अनुभव नहीं , पर सहमा हुआ साहस भी सुकून बहुत पाता है ! नफा- नुकसान के बही खाते से परे आज एक दबा आक्रोश , अपने भीतर ही ज्वालामुखी के विस्फोट सा हो जाना चाहता है !

मोह बुरा नहीं ; स्वार्थ गुनाह नहीं ; पर पाकीज़गी का भ्रम , ईमान का झांसा , परम सत्य के सामने कब बेआबरू हो जाएँ और प्रेम को भूख  और त्याग को महज़ अवसर भुनाने की कवायद साबित कर दें कहना कठिन है ! नए पंखों से सपनों की उड़ान भरी थी , पर जीवन तो एक उड़ते ताबूत का भ्रम देता है ! क्या पंखों को भरोसा कम दंभ ज्यादा था ? या उड़ान में सहजता कम बेक़रारी अधिक थी ?

कौन जाने यह उड़ना था भी या नहीं ? सापेक्षिक रूप से तो कहीं कोई ऊँचाई होती भी नहीं !
                                              #  राजेश पाण्डेय

Wednesday 1 June 2011

ख़ुद का पंचनामा

ख़ुद का पंचनामा  
आज बरसों बाद मैंने अपनी diary entries पढ़ीं ! निजी अनुभवों से रंगे कुछ पन्नों ने आँखें नम कीं ; कुछ गुदगुदा गए , पर ऐसी ढेरों entries हैं जो चाबुक की तरह आत्मा पर बरस रहीं हैं ! हम ख़ुद को कितना कम समझते हैं ! जैसी परिस्थितियाँ मिलीं , उसी सुविधा के अनुरूप अपना प्रपंच ( so called moral codes) रच लेते हैं ! परिस्थितियाँ बदलीं , तो हम अपने बदले हुए मुखौटे के लिए नया justification  ढूँढ लेते हैं !
      सच है , इन्सान सबसे ज्यादा ख़ुद को चाहता है ; पर इसे स्वीकार करने में बड़ी हिचक है ! क्यूँकि हमने स्वयं को कुछ दूसरे ही पहनावे में दुनिया के रंग मंच में पेश किया है !और इस Cat -walk में अपनी स्वाभाविक चाल या तो भूल गए हैं ; या फिर अपने बेडरूम अथवा बाथरूम के floor तक सीमित कर दिया है !
जीवन के भूगोल के हर क्षेत्र में हमने अपनी नैतिक सभ्यता विकसित नहीं की है ! एक बड़ा हिस्सा अब भी मन के बीहड़  के रूप में विद्रोही है ; जहाँ मन की भी नहीं चलती ! बीहड़   का अपना अलग वजूद है , जिसे समझना और सँवारना बाकी है ! आज बरसों बाद , आईने के सामने मैं
अपने ही प्रश्नों पर निरुत्तर हूँ ! कुछ भी परम सत्य नहीं है और यदि है भी तो वह "सापेक्षिक" है :-  Theory of relativity applies to Truth also .
             पर जैसा कि हम जानते हैं , की जिन सभ्यताओं ने अपने इतिहास से सबक़ नहीं लिया वे नष्ट हो गयीं ; ठीक उसी तरह अपने जीवन के अनुभवों से ना सीखने वाले लोग , अपना " मूल व्यक्तित्व " कहीं खो देते हैं !  राहत इतनी ही है , कि  " आत्मा" अभी मरी नहीं है - क्यूँकि कचोट रही है !ख़ुद पर भरोसा सिर्फ इतना है कि सीखने
और परिपक्व होने की ईमानदार कोशिश जारी है !
 May God .........oooops....the mistake again. Let me help myself !!
                                               #  राजेश पाण्डेय