Saturday 30 April 2011

कुछ समझाना चाहता हूँ ।

 कुछ समझाना चाहता हूँ
मेरे इर्द गिर्द गहराती शंकाओं की धूँध ,
ख़ुद मेरी रची नहीं है ;
( और अब ये लोग हैं कि परिस्थितियाँ मायने नहीं रखतीं  )
पर यह भी सच है ,
                        कि इस एक वजह से तुम ,
मुझे कभी पूरा साफ़ देख नहीं पाओगी !!
और बस एक कसक सी रह जाती है ;
                                    तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
अगर सापेक्ष भाव से देखें ,
                  तो कहीं भी कोई परम सत्य नहीं होता !!
पर यह भी ठीक है ,
                     कि तुम्हे अपनी चौखट से ही देखना है
और बस यह एक पक्ष ही तो है ,
                        कि कसक निरंतर बनी रहती है
और अब मै बेचैन हूँ ;
                     तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
पराये पत्थर पसलियाँ फोड़ते हैं
                     और मै सर बचा के चलता हूँ !
पर जब - जब भी
मै तेरे संग कि ज़द मै आता हूँ ;
दर्द सारा , सीधे दिल मे उतर जाता है !
जरा ठहर ,
           अरे आहिस्ता ;
ज़ख़्म गहरें हैं  :
          कुछ समझाना चाहता हूँ !!
                                      # राजेश पाण्डेय

अपना अपना पिंजड़ा

अपना अपना पिंजड़ा 
अपने लिए कुछ चाहना
अपने आप को छलना है
क्यूँकि
ये चाहत तो टूटेगी
ज़रूर टूटेगी
और तुम्हारे भीतर ही टूटेगी ।
यह जीवन का
एक सहज सिद्धांत है
अपना- मेरा- मैं
कभी भी नहीं चल सका ।
हम अनजाने ही
सुप्त पड़े आँसुओं के समंदर को
मथ जाते हैं
और तड़पते हैं
दोष
दूसरों पर मढ़ते हैं ।
मै जानता था
तुम भी समझती थीं
मुश्किलें
फ़ासिले
शर्तें
मजबूरियाँ
पर हम दोनों
लाँघ जाना चाहते थे - यह सब
पर अपने अपने पिंजड़े में
क़ैद रहकर
यह कैसे संभव था ?
हम अपने ही
पिंजड़ों की सलाखों  से
टकराते रहे
और अपने- अपने
ज़ख़्म लेकर
फिर लगे चुगने
अपना अपना दाना
अपने - अपने पिंजड़े में !
# राजेश पाण्डेय