Thursday 27 June 2013

Himalayan Revenge

      -: हिमालय का दर्द:-
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सैलाब का मंज़र है , लाशें जहाँ - तहाँ रे !
उफ़नते आँसुओं , से आस्माँ निहारें !!
कुछ ग़लतियाँ हमारी , कुछ तल्ख़ियाँ तुम्हारी  ;
क़ुदरत का जो क़हर  हो , पर आस्था  से हारे !!
मेरी  इल्तिजा है तुझसे , गर मेरा गुनाह ठहरा ;
बच्चों को " लाश " ना कर , आबरू बचा रे !!
आस्माँ से आये कुछ हाथ फरिश्तों के ;
कुछ नोचते हैं लाशें , चौखट पे ही तुम्हारे !!
" दर्शन " को  सब यहाँ थे , क्या ये भी ख़ता ठहरी ?
ये कैसा न्याय तेरा ? पूछते हैं सारे !!
                            # राजेश पाण्डेय