Friday 12 August 2011

खुद की तलाश

खुद की तलाश और प्रकृति!!
               रात ने घटाओं की गड़गड़ाहट  के साथ कुछ नर्म बौछारों का तान छेड़ा और मै पलकों में , जागती आँखों के प्रश्नचिन्हों की नमी सहेजकर , सलवटों पर बिछ चुका था ! बाहर सरसराती हवाओं ने शायद पत्तियों को थपकियाँ दीं थीं , और मै नींद की बाँहों में कब समा गया - भान नहीं रहा !! पर न जाने कैसे ,गरजती बिजलियों से , गहरे हुए अवसाद का एक दुःस्वप्न् कौंध गया :-
               कौन है ये ? शंकाओं , उलझनों और कौतुहल की सलीब पर रिसते ज़ख़्म की नुमाइश को टंगा ?तन्हा, सिसकता वजूद ! अक़्स पहचाना सा !! डूबती नब्ज़ और विचलित जिजीविषा में कुछ अपनेपन का भान !! साँसों की थकी , बेसुर लय से निकलती वो मर्मभेदी , मद्धम कराह...
                                                                                                                                            अरे ठहर !! ये तो मै हूँ -- दमित आकांक्षाओं की शापित छवि सा !! जीवन के सम्मोहन से पूर्ण मुक्ति को छटपटाता , और इस आत्मध्वंसात्मक  प्रयास में , गहरे और गहरे धंसता हुआ ! अपनी नियति के एकांत में विलीन !!
                                पर फिर बाहर शायद बारिश थमी थी और आसमान साफ़ धुल कर खिल रहा था ! नीले शांत अनंत में थिरकते , दमकते चाँद ने अपना शाश्वत प्रभामंडल बिखेरा - और मैं हठात् , अपलक उसे निहारता -स्मृति पटल में जीवन का एक अलग ही प्रतिबिम्ब गढ़ने लगा !! सरसराते पत्तों से आलिंगनबद्ध  बहती मद्धम बुदबुदाती हवा , उल्लास का एक दूरस्थ अनुगूँज-सा आभास देने लगी ! 
           समझ में आया कि जीवन , शायद ऐसे ही चन्द लम्हों की सुकून की तलाश में , अपनी सारी साँसे गिरवी रखने की शर्त स्वीकारता है ! जीवन में रस के बाँझपन से उकता कर यदि कोई खुद्दारी के साथ तन्हा रहने की अभिलाषा पालता हो - तो अभिप्रेरणा स्रोत प्रकृति की ये छटाएं ही हो सकती हैं :- एक बेबूझ निमंत्रण , बेपरवाह खिलखिलाहट का मीठा इशारा ।
                                #  राजेश पाण्डेय

2 comments:

  1. काव्‍यात्‍मक विचार प्रवाह.

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