ढोल-मजीरों ने पूरी रात पूर्णिमा के चाँद को थरथरा रखा था । अब ख़ामोशी थी । अबीर , गुलाल से किलकारियाँ मारता रंगीन चौराहा अब सुस्ता रहा था । होली के बाद की वो शांत सुबह थी । लाल बाग के मैदान के चारों ओर के रास्ते अलसाए से पड़े थे । मैं कुछ आश्वस्त सा होकर सूरज की पहली किरणों के साथ ही टहलने निकल पड़ा । मैंने वो सारे रंग देखे जो रास्तों पर औंधे पड़े थे , हल्के छाए बादलों और मद्धम बहती हवा ने उनमें एक अलग ही आभा बिखेरी हुई थी ।उनमें से कोई भी रंग मेरा नहीं था । मैं होली खेलता कहाँ हूँ ? वैसे ही जैसे दशहरे की भीड़ में ग़ुम नहीं होता , जैसे नए साल के जश्न में थिरकता नहीं । घर से कोसों दूर , दोस्तों से ज़ुदा , बस्तर के जंगलों के बीच ख़ुद भी खोया खोया सा । पर कभी- कभी सोचता हूँ कि मैं कुछ भी miss क्यों नहीं करता ? वक़्त ने सीने में ना जाने कौन सा धातू उड़ेल दिया है ? मैं मज़बूत अधिक हुआ हूँ या निष्प्राण ज़्यादा ???
रंग से लाल हुई सड़क की छाती पर पीले , हरे गुलाल लिपटे पड़े थे । कहीं कहीं हल्की चमकती हुई चाँदी सी परत शरमाई हुई लग रही थी । ठीक वैसे ही जैसे मैंने झिझकते हुए उसके गालों पर गुलाल से सनी अपनी उँगलियाँ फेर दी थीं । रंग से पुता उसका चेहरा और सुर्ख़ हो गया था । बड़ी बड़ी कौतूहल भरी आँखों से उसने मुझे थाम लिया था । मुट्ठी भर गुलाल मेरे बालों में ठूंसने। पर ये सब मैं अब क्यों सोचता हूँ ? लम्हों की धीमी आँच में पके रिश्तों का मर्म तो कब का पीछे छूट चुका है । साथ ही वो उल्लास भी । " मुझे रंगों से एलर्जी है " :- - सब जानते हैं कि मैं झूठ बोलता हूँ , पर कोई भी ये कहाँ जान पाया कि मैं सिर्फ़ " रंग " कब बोलता हूँ ।
तभी एक निरीह सा चौपाया , जो मानव सभ्यता की शुरुआत से ही हमसे वफ़ादार रहा है , केमिकल वाले रंगों से लाचार , घबराया सा गुज़रा , और विचार की श्रृंखला करवट लेती है । मुझे याद है कैसे हमारी प्यारी रूबी दिवाली के पटाखों से पस्त होकर काँपती हुई बिस्तर के नीचे दुबक जाती थी । और क्यों मैं आज भी पटाखे नहीं फोड़ता ? त्यौहार के मायने हर किसी के लिए एक से नहीं होते ।
कुछ अनमने से वापस लौटते हुए ख़याल आया कि अभी बहुतों को wish करना रह गया है । मेरे लिए त्यौहार के मायने ही बदल गए हैं । संवेदनाओं की नई कसौटियाँ सामने आने लगी हैं । आज मैं सम्बन्धों को मधुरता से ना सही पर व्यवहार की चपलता से निभाना ज़रूर सीख गया हूँ ।
# राजेश पाण्डेय
रंग से लाल हुई सड़क की छाती पर पीले , हरे गुलाल लिपटे पड़े थे । कहीं कहीं हल्की चमकती हुई चाँदी सी परत शरमाई हुई लग रही थी । ठीक वैसे ही जैसे मैंने झिझकते हुए उसके गालों पर गुलाल से सनी अपनी उँगलियाँ फेर दी थीं । रंग से पुता उसका चेहरा और सुर्ख़ हो गया था । बड़ी बड़ी कौतूहल भरी आँखों से उसने मुझे थाम लिया था । मुट्ठी भर गुलाल मेरे बालों में ठूंसने। पर ये सब मैं अब क्यों सोचता हूँ ? लम्हों की धीमी आँच में पके रिश्तों का मर्म तो कब का पीछे छूट चुका है । साथ ही वो उल्लास भी । " मुझे रंगों से एलर्जी है " :- - सब जानते हैं कि मैं झूठ बोलता हूँ , पर कोई भी ये कहाँ जान पाया कि मैं सिर्फ़ " रंग " कब बोलता हूँ ।
तभी एक निरीह सा चौपाया , जो मानव सभ्यता की शुरुआत से ही हमसे वफ़ादार रहा है , केमिकल वाले रंगों से लाचार , घबराया सा गुज़रा , और विचार की श्रृंखला करवट लेती है । मुझे याद है कैसे हमारी प्यारी रूबी दिवाली के पटाखों से पस्त होकर काँपती हुई बिस्तर के नीचे दुबक जाती थी । और क्यों मैं आज भी पटाखे नहीं फोड़ता ? त्यौहार के मायने हर किसी के लिए एक से नहीं होते ।
कुछ अनमने से वापस लौटते हुए ख़याल आया कि अभी बहुतों को wish करना रह गया है । मेरे लिए त्यौहार के मायने ही बदल गए हैं । संवेदनाओं की नई कसौटियाँ सामने आने लगी हैं । आज मैं सम्बन्धों को मधुरता से ना सही पर व्यवहार की चपलता से निभाना ज़रूर सीख गया हूँ ।
# राजेश पाण्डेय
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