कुछ समझाना चाहता हूँ
मेरे इर्द गिर्द गहराती शंकाओं की धूँध ,
ख़ुद मेरी रची नहीं है ;
( और अब ये लोग हैं कि परिस्थितियाँ मायने नहीं रखतीं )
पर यह भी सच है ,
कि इस एक वजह से तुम ,
मुझे कभी पूरा साफ़ देख नहीं पाओगी !!
और बस एक कसक सी रह जाती है ;
तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
अगर सापेक्ष भाव से देखें ,
तो कहीं भी कोई परम सत्य नहीं होता !!
पर यह भी ठीक है ,
कि तुम्हे अपनी चौखट से ही देखना है
और बस यह एक पक्ष ही तो है ,
कि कसक निरंतर बनी रहती है
और अब मै बेचैन हूँ ;
तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
पराये पत्थर पसलियाँ फोड़ते हैं
और मै सर बचा के चलता हूँ !
पर जब - जब भी
मै तेरे संग कि ज़द मै आता हूँ ;
दर्द सारा , सीधे दिल मे उतर जाता है !
जरा ठहर ,
अरे आहिस्ता ;
ज़ख़्म गहरें हैं :
कुछ समझाना चाहता हूँ !!
# राजेश पाण्डेय
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