Saturday, 30 April 2011

कुछ समझाना चाहता हूँ ।

 कुछ समझाना चाहता हूँ
मेरे इर्द गिर्द गहराती शंकाओं की धूँध ,
ख़ुद मेरी रची नहीं है ;
( और अब ये लोग हैं कि परिस्थितियाँ मायने नहीं रखतीं  )
पर यह भी सच है ,
                        कि इस एक वजह से तुम ,
मुझे कभी पूरा साफ़ देख नहीं पाओगी !!
और बस एक कसक सी रह जाती है ;
                                    तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
अगर सापेक्ष भाव से देखें ,
                  तो कहीं भी कोई परम सत्य नहीं होता !!
पर यह भी ठीक है ,
                     कि तुम्हे अपनी चौखट से ही देखना है
और बस यह एक पक्ष ही तो है ,
                        कि कसक निरंतर बनी रहती है
और अब मै बेचैन हूँ ;
                     तुम्हे कुछ समझाना चाहता हूँ !!
पराये पत्थर पसलियाँ फोड़ते हैं
                     और मै सर बचा के चलता हूँ !
पर जब - जब भी
मै तेरे संग कि ज़द मै आता हूँ ;
दर्द सारा , सीधे दिल मे उतर जाता है !
जरा ठहर ,
           अरे आहिस्ता ;
ज़ख़्म गहरें हैं  :
          कुछ समझाना चाहता हूँ !!
                                      # राजेश पाण्डेय

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