अपना अपना पिंजड़ा
अपने लिए कुछ चाहना
अपने आप को छलना है
क्यूँकि
ये चाहत तो टूटेगी
ज़रूर टूटेगी
और तुम्हारे भीतर ही टूटेगी ।
यह जीवन का
एक सहज सिद्धांत है
अपना- मेरा- मैं
कभी भी नहीं चल सका ।
हम अनजाने ही
सुप्त पड़े आँसुओं के समंदर को
मथ जाते हैं
और तड़पते हैं
दोष
दूसरों पर मढ़ते हैं ।
मै जानता था
तुम भी समझती थीं
मुश्किलें
फ़ासिले
शर्तें
मजबूरियाँ
पर हम दोनों
लाँघ जाना चाहते थे - यह सब
पर अपने अपने पिंजड़े में
क़ैद रहकर
यह कैसे संभव था ?
हम अपने ही
पिंजड़ों की सलाखों से
टकराते रहे
और अपने- अपने
ज़ख़्म लेकर
फिर लगे चुगने
अपना अपना दाना
अपने - अपने पिंजड़े में !
# राजेश पाण्डेय
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