Tuesday, 30 April 2019

*ख़्वाबों से भीगे ख़त*

Dear ज़िंदगी
        शायद तुझे ख़बर नहीं मैंने तेरी करवटों के नीचे से सिलवटें चुराई हैं और सहेज कर रखता रहा हूँ । तेरे साथ न होने पर इन्हें यादों की सेज बना कर कई रतजगे किए हैं । याद है तू कैसे मेरे बाएँ कंधे पर सर टिकाकर , दिल की धड़कनों के ठीक ऊपर अपनी नाज़ुक हथेली रख , किसी 6 माह के बच्चे की मासूमियत लिए सुकूँ की नींद सोती थी ? मैं तेरे बालों में हौले हौले उंगलियाँ फेरता तुझे घण्टों निहारा करता । बीच बीच में तेरे नाक के आगे अपनी उंगलियाँ रखकर तेरी साँसों में घुले सपनों की भीनी महक महसूस करता । तेरी नींदों ने मेरी नींदें उड़ाई है जॉना  , पर रातों को उतना ही हसीन भी बना दिया ।
         कई बार जब तू मुझसे कुछ दिनों के लिए दूर चली जाती तो पता है क्या होता था ? दिल ने धमनियों में रक्त के बदले बेचैनियाँ दौड़ाई थीं । साँसों ने लय तोड़कर टूटने , उखड़ने का भय पैदा किया था । दिल और धड़कने सिर्फ़ शरीर मे साथ होते हैं , रूमानी रिश्तों में ये सारे समीकरण बदल जाते हैं । भौतिक दूरियाँ संवेदनाओं की धार और बढ़ा देती है , दिल और धड़कनों के बीच तब मीलों के फासले होते हैं । याद है कैसे आधी रात तुझे फोन करके बिलख पड़ता था : " यार साँसे रुक सी जा रही हैं , दिल डूब रहा है , तू क्यूँ नहीं है मेरे पास ? " और हम दोनों की आँखें भीग जाती थीं ।
       तूने जो आसमान का टूकड़ा लम्हों की नज़ाकत में पिरो कर दिया है न मुझे , अब उसी के नीचे लेट कर अक्सर सोचा करता हूँ । वो पेड़ ,  पौधे , चाँद , तारे सब हमें पहचानते थे । याद है जब हम दोनों चटाई डाल कर खुले में लेटे रहते तो कैसे मैं अचानक से बोल पड़ता था  "देख चाँद ने मुझे अभी अभी आँख मारी है ।" और तू मुस्करा कर कहती "हाँ मुझे भी चाँदनी के हर्फ़ से लिखे लफ़्ज़ आसमान में तैरते दिख रहे हैं" : *Raj loves his Rose* है न ? और हम खिलखिला पड़ते ।
          हमारे नसीब में अग्नि के चारों ओर फेरे नहीं लिखे थे । पर सामाजिक बन्धनों की सारी सीमाओं से परे भी कुछ रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं । हमने चाँद को साक्षी रखकर तारों की बारात निकाली थी और मुक़म्मल इश्क़ के अनगिनत फेरे लिए थे पूरे आकाश में । ये आसमान का टुकड़ा आज भी मेरा सहारा है जॉना । ये चाँद अब भी मुझसे बातें करता है । तेरा मेरे साथ न होना एक सामाजिक मर्यादा है । पर तेरा होकर रहना मेरा हक़ । और याद रख dear ज़िंदगी , मैं तब तक जिऊँगा जब तक तू तसव्वुर की इजाज़त देती रहेगी ।
           # राजेश पाण्डेय

Sunday, 9 December 2018

यदि प्यार को दो पव्वा देसी शराब से ज़्यादा समझना चाहते हो , तो सुनो मेरी बात । जिसे तुम प्यार कहते हो न , वो कुंठा मात्र है । एक हँसती , खिलखिलाती लड़की यदि सबसे बच कर , झिझक कर रहने लगे , तो साफ है तुमने उसके पँख कतर दिए हैं ।  दोस्तों से सहज मेल-मिलाप पर भी तुम्हारे चेहरे के हाव भाव उसके दिल पर ताबूत में कील की तरह गड़ते हैं । वो दूरी बनाने लगती है । वो इसे तुम्हारे प्रति सम्मान एवम फ़िक्र का नाम देगी , तुम भी उसे उसके इस छद्म भाव मे धीरे धीरे घूटने दोगे । तुम चिंता करते हो उसकी , ख़्याल भी रखते हो उसका , पर दोस्त तुम ने उसके पर कतर दिए हैं , और ये प्यार तो क़तई नहीं है ।
           और तुम , शायद तुम्हारा अहम इसे स्वीकार ना करने दे , पर तुम सिर्फ इस्तेमाल हो रहे हो दोस्त । आवरण जो भी हो , तुम्हारे लिए सहज दिखना , सहज बने रहने से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है । कभी सोचा कि अपनी आज़ादी की दुहाई देती वो , तुम्हें कैसे मूक बधिर बना बैठी है ।  उच्छश्रृंखलता में सहजता नहीं है , पर तुम्हे डर है कि तुम दकियानूस कहलाओगे । और इस फेर मे निरन्तर घुटते हुए निभाते जा रहे हो ।
    और तुम , वो जो दोस्त है न तुम्हारी , तुम्हें पूरा नहीं माँगती कभी , हक भी नहीं जताती । पर तुम चाहिए उसे , हर हाल उसकी ज़िंदगी मे । वो प्यार में है -  संबंधों और भावनाओं के सहज प्यार में । उसके सानिध्य में तुम्हे जो सुकूँ मिलता है न - वही असल भाव है प्रेम का । जानते हो क्यों ? क्योंकि वहाँ तुम अपने स्वाभाविक रूप में रह सकते हो ।
   मैं माँ की ममता और जन्म से बने नैसर्गिक रिश्तों पर बात नहीं कर रहा । वो तो और भी वृहद दायरा है , पर जो तुम बनाना चाहते हो अपने लिए प्रेम की नई दुनिया तो समझो --
      तुम अधूरे ठीक नहीं हो , पहले ख़ुद में पूर्ण बनो । किसी रिक्ति में , किसी मे पूरा होने के भाव मे प्रेम व्यापार ज़्यादा लगता है । तुम पूर्ण बनो , अब फिर भी कोई तुम्हारी अन्तर्रात्मा को छूता है , दिल मे ख़ास जगह बनाता है , परस्पर संवाद किसी और दुनिया मे ले जाते हैं , तो तुम प्रेम में हो । चूँकि तुम ख़ुद पूर्ण हो , तो तुम्हारी कुंठाएँ , तुम्हारे पूर्वाग्रह इस रिश्ते में ग्रहण नहीं लगाएंगे । जब मिलो , दिल खोल कर मिलो । साथ रहना ज़रूरी नहीं - पर जब भी साथ हो,  जियो --भरपूर जियो -दोनों अपनी अपनी पूर्णता को नई  ऊँचाइयों में ।
        # राजेश पाण्डेय

Saturday, 18 August 2018

प्रतीक्षा

*प्रतीक्षा*

प्रतीक्षा :
अब
एक शापित सम्मोहन है !
एक ऐसी उम्मीद
जो उड़ान चुक गयी है !
एक ऐसा स्वप्न
जो श्रृंगार छोड़ चुका है !

प्रतीक्षा :
अब
हाशिए पर सरकता
एक चेतना शून्य सफ़र है !!
             
              पर ये
             अपने शैशव काल में
             उम्मीद के पँखों पर
             वाचाल थी !
             तब
             इसकी देह को
            ब्रह्माण्ड का विस्तार था !

तब
ये दौड़ती थी
ऐसी गर्म रक्त शिराओं पर
जो ज्वालामुखी का तेज़
निगल जाएँ !

तब
हृदय की धमनियाँ
भूचाल का कम्पन
समेट लें !

आँखें
चाँद को
पलकों से थपथपा दें !
स्मृति के सम्मोहित पट
तब मुस्कान की
मीठी दहलीज़ पर ही
खुलते थे !!
                  पर जैसे धीरे-धीरे
                  उम्र बढ़ती है
                  बिना प्रयास के !
                  प्रतीक्षा भी
                  ढलती जाती है
                  मरती जाती है
                  धीरे-धीरे
                  बेबस
                  बिना यत्न के !!
         
           # राजेश पाण्डेय

सिसकियाँ

*सिसकियाँ*

जीवन
यत्न और यातनाओं
उत्सव और पीड़ा
से परे भी
अनेक यात्राएँ करती है ।
उनमे से
एक यात्रा होती है
ध्वनि की :-
             किलकारी से फूटते
             जीवन के प्रथम नाद से
             चीत्कार और रुदन
             के समापन तक
             जीवन
             ध्वनि तरंगों की एक
              मुसलसल यात्रा है ।
इनमें से सबसे तन्हा
उपेक्षित यात्रा होती है
सिसकियों की यात्रा !!
                भरी महफ़िल में
                किसी अपने की
                फब्तियों पर
                नकली हँसी में
                ज़िंदा दफ़्न होती
                सिसकियाँ !!
बच्चों के आगे
अपमानित होकर
अंगीठी की आँच में
सुलगती सिसकियाँ !!
                छले जाने के बाद
                बन्द कमरे में
                तकिए से गला घोंटती
                सिसकियाँ !!
अफ़सोस और पश्चाताप
की चिता में
निरन्तर धधकती
सिसकियाँ !!
                  ये सिसकियाँ
                  स्पर्श की
                  मोहताज होती हैं
                 और जब कभी
                 अपने भीतर ही
                 किसी अनुभूति का
                 स्पर्श पाती हैं :-
तब फूट पड़ती हैं
कविता , ग़ज़ल , लेख
की शक्ल में
अनहद से स्वर बनकर ।
           
                   # राजेश पाण्डेय

Wednesday, 6 July 2016

चल गुनाह क़बूलते हैं ।

चल गुनाह क़बूलते हैं । स्वप्न की " पहली मिठास " का गुनाह । अरमानों की " पहली उड़ान " का गुनाह । दिल की पहली " तेज धड़कनों " का गुनाह । ज़िंदगी के " पहले स्पर्श " का गुनाह । किसी परम्परा के " प्रथम भंजन " का गुनाह । गुनाह के " पहले अपराध बोध " का गुनाह । ख़ुद से सहम कर जीने का गुनाह । फ़ेहरिस्त लम्बी है - पर चल इनमें से कुछ तो चुनते हैं । चल आज कुछ गुनाह क़बूलते हैं ।
                  ये ज़िंदगी किसी मन्नत की मुहताज  नहीं थी । बस घट गई , इत्तिफ़ाक़न । जैसे गूँजती हैं हर गली मुहल्ले में - किलकारियाँ । पर जनाब इन साँसों ने तो अपनी पहली करवट से ही बाँधना शुरू कर दिया था - मन्नतों का धागा , तमन्नाओं की शक्ल में । अन्नप्रासन की पहली चखन ने गूँथ दिया था, स्वाद का गुनाह - जिह्वा पर । लोरी की पहली मीठी थपकियों ने पिरो दिया था , स्वप्न का गुनाह - पलकों पर , नज़रों में ।  खिलौनों की पहली ज़िद , और उस पर जीते जंग ने , ठुमक कर खड़ा कर दिया था , गुनाहों  का पूरा लश्कर - मन के भीतर । नसीहतों के पहले पाठ ने ही खोल दिए थे सारे बन्द दरीचे - जिज्ञासाओं के । और अब हसरतों का पूरा आसमान सामने है - अनन्त संभावनाओं के झिलमिलाते गुनाह से रौशन ।
         तुम रही थीं मेरे " पहले गुनाह " की साक्षी । पलकों की ओट से निहारने का मेरा पहला गुनाह तुम थीं । मर्यादाओं को लाँघने का मेरा पहला साहस तुम थीं । ज़िंदगी के मन्नत हो जाने की मेरी पहली कशिश तुम थीं । पर तुम तो समझ भी नहीं पाईं थीं , और इन सबमे मैं तेरा गुनाहगार हो चला था । पर इस अपराध बोध की पहली चुभन ने हुमककर धर दिया था छाती पर ज़िद का कच्चा लोहा । जिसे  मैं तबसे पकाता आ रहा हूँ , हर नए गुनाह के साथ - ठोस और ठोस ।
         चल थोड़ा गुनाह तू भी साथ चुन ले । बिजली के तरंगों सी उस प्रथम स्पर्श का गुनाह - जो हथेलियों पर भी हृदय के स्पंदन सा स्पष्ट था । शिष्टाचार के आवरण में जिया हुआ वो हमारा पहला निजी लम्हा । तब हम दोनों गुनाहगार हो चले थे । समझ बूझ कर भी अनजान बने हुए गुनाहगार । पर तब सोचा था चल कुछ गुनाह यूँ भी जी लें - साँझा । गली मुहल्ले में घटती सी ज़िंदगी , तब मन्नत जो हो चली थी ।
         चल आज फिर से हासिए पर पड़ी तमन्नाओं की कोई पुरानी पोटली खोलते हैं , और उसमें से चुनते हैं , मन्नत का सबसे उधड़ा हुआ कोई धागा । और बाँध लेते हैं उसे नए रक्त की किसी उफनती धमनी पर । चल ये ख़्वाब ही सही - पर साथ साथ जिएँ , और बस इतना क़बूलें  , पूरे मन से कि " हाँ , ऐ गुनाह क़बूल है , क़बूल है , क़बूल है " । और जब आँखें छलककर नम रह जाएँ  ; होठ थरथराएँ , लरज़ जाएँ ; रक्त शिराएँ खौलकर थम जाएँ । तो लिख लें कहीं किसी सादे काग़ज़ पर " एक और गुनाह का क़बूलनामा " । बहला लें दिल को गुनाह के एक और हसीन किस्से से ।
                              # राजेश पाण्डेय

Sunday, 8 May 2016

वो मैं ही था ।

गरजते बादलों में , जो घुप्प अँधेरी रात थी , वो मैं ही था ।
बहा ले जाने को व्याकुल , जो बरसात थी , वो मैं ही था ।।
महफ़िलों , नुमाइशों , औ' जश्न में दुनिया रही ;
परेशानियों में , तल्ख़ जो हालात थे , वो मैं ही था ।।
कहकहों में कटी शाम तेरी , हलचलों में दिन ;
उचटती नींद के ,जो अनमने ख़यालात थे, वो मैं ही था ।।
तजुर्बादार रहे लोग तेरे , सुलझे हुए सलाह ;
हमारे बीच , जो उलझे हुए , सवालात थे, वो मैं ही था ।।
हज़ार दाँव चली ज़िंदगी , किस्मत हज़ार चाल ;
लाचार सी पसरी हुई , जो बिसात थी , वो मैं ही था ।।
                      # राजेश पाण्डेय

Sunday, 1 May 2016

शिकवा , गिला

शिकवा , गिला कुछ भी न की , कि बेआबरू होता था वो ।
पर रहा ये इल्ज़ाम सर पर ," कि हर बात पे रोता था वो "।।
बंदिशें इतनी सहीं , कि मैं कभी " मैं " न रहा ;
पर लोग उठने तक जनाज़ा , पूछा किये -- " कैसा था वो ? "
या रब तू मुझसे पूछ मत , हिसाब मेरी ज़िंदगी का ;
अच्छा रहूँ इस फ़ेर में , गुज़ारी जो , धोखा था वो ।।
उस शाम मेरी ज़ब्ते- मोहब्बत , ज़ंजीरे जुनूँ थी , कुछ न था ;
आज पछताता हूँ कि , " हाय इक मौका था वो । "
नाश में हलचल हुई इक , बंद पलकें नम हुईं ;
क्यूँ कफ़न सरका के मेरा ,बेसाख़्ता चौंका था वो ।
                                    # राजेश पाण्डेय