इक ख़्वाब सा देखा मैंने
नम आँखों से टपकती थी बूंदें - ओस सी :
दूब की नोक पे मोती सी पिरो आई है !!
ज़ब्त तल्ख़ियां करती हुई ; फ़िक़ी सी हँसी ;
डाल पर फुदकते हुए बुलबुल पे भरमाई है !!
कुछ ख़ामोश से पड़ते हैं , क़दमों के निशां
तन्हा, दरख़्तों के कहीं बीच धंसा जाता हूँ
न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!
रात की ख़ामोश सी चादर में सितारों सी सलवटें
दुबक कर ; नीले आसमान पे कहीं गम सा हूँ मै
उजले चाँद को छेड़ते ; फाहों से, टुकड़े बादल
हवा मद्धम सी चली है मगर , गुमसुम सा हूँ मै !
नींद सदियों की हसरत सी है ठिठकी मुझ पर :
आँख भारी है, दिल बेचैन , जगा जाता हूँ !
न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!
# राजेश पाण्डेय