Tuesday, 13 September 2011

इक ख़्वाब सा देखा मैंने

              
                  इक ख़्वाब सा देखा मैंने

नम आँखों से टपकती थी बूंदें - ओस सी :
दूब की नोक पे मोती सी पिरो आई है  !!
ज़ब्त तल्ख़ियां करती हुई ; फ़िक़ी सी हँसी ;
डाल पर फुदकते हुए बुलबुल पे भरमाई है !!
कुछ ख़ामोश से पड़ते हैं , क़दमों के निशां
तन्हा, दरख़्तों के कहीं बीच धंसा जाता हूँ
न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!

रात की ख़ामोश सी चादर में सितारों सी सलवटें
दुबक कर ; नीले आसमान पे कहीं गम सा हूँ मै
 उजले चाँद को छेड़ते ; फाहों से, टुकड़े बादल
 हवा मद्धम सी चली है मगर , गुमसुम सा हूँ मै !
 नींद सदियों की हसरत सी है ठिठकी मुझ पर :
  आँख भारी है, दिल बेचैन , जगा जाता हूँ !
   न जाने क्यूँ - पर इक ख़्वाब सा देखा मैंने !!
                                             #   राजेश पाण्डेय